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________________ रहस्यावरण में पृथ्वी की विचित्र रूपमयता, आकाश की एकरूपता में डूब गयी है क्षितिज की रेखा भी वहाँ नहीं दिखाई पड़ती... | प्रकृति की अपार रमणीयता एक साथ अंजना की शिरा-शिरा में खेलने लगती। अँगड़ाइयाँ भरती हुई वह उठ बैठती। अपराजित यौवन से वक्ष उभरने लगता। दिशाओं की बादल बाहिनी दूरी उसकी आँखों में तपने भर देती। चंचल दुरन्त बालिका - सी वह चल पड़ती। नाना लीला-विभ्रमों में देह को तोड़ती-मरोड़ती, शिलाओं और गुल्मों के बीच नाचती -कूदती, वह नदी के पिंगल वालुकामय तट पर आ जाती । कास के अन्तराल में लहरें बिछल रही हैं और किरणें नदी की माँग में सोना भर रही हैं। कुछ दूर चलकर नदी के पुलिन में लवली लताओं के कुंज छाये हैं। किसी तटवर्ती वृक्ष के सहारे, दो-चार विरल बल्लरियाँ नदी की लहरों को चूमती हुई झूल रही हैं। उनमें बैठी कोई एकाकी चिड़िया दुपहरी का असल गान गा रही है । और भीतर लवली - कुंज की गन्ध- विधुर, मदालस छाया में, सारसों का युगल, कुसुम की शय्या पर केलि-सुख में मूर्च्छित है। ऊपर से निरन्तर झरती पराग की चादर में एकाकार हो गये हैं। अंजना जैसे उनके रति-सुख के गहन मौन में होकर चुपचाप छाया-सी निकल जाती। वह नहीं होती उनके सुख की बाधा, वह तो उसी की एक हिलोर बनकर उसमें समा जाती । अमित उल्लास से भरकर वह आगे चल पड़ती। कही तटवर्ता तमालों की घटा में मेघों के भ्रम से विकल और मुग्ध होकर चातक कोलाहल मचा रहे हैं। कहीं हरित मरकत-से रमणीय वृक्ष - मण्डप हारीत पक्षियों के गुंजार से आकुल हैं। चम्पक- कुंजों की शीतल छाया में भृंगराज पक्षी, ऊपर से झरती पराग के पीले आस्तरण में उन्मत्त पड़े हैं। घने अनारों के पेड़ों की कोटरों में चिड़ियाएँ अपने सद्यः जात शिशुओं को पंखों से ढककर सहलाती और प्यार करती हैं।... अंजना को लगता कि वक्ष पर बँधे वल्कल के भीतर एक लौ-सी जल उठी है। भीतर से निकलकर अन्तर की एक ऊष्मा मानो (आसपास की इन सारी चेष्टाओं को अपने भीतर ढाँक लेना चाहती है। कहीं कबूतरों के पंखों की फड़फड़ाहट से सुर- पुन्नाग की कुसुम राशियाँ झर पड़ती हैं। अंजना चौकन्नी होकर अपने शरीर को देखती रह जाती है। पराग और अनेक वर्णी फूलों की केशर से देह चित्रित हो गयी है। वह तल में बैठ जाती है, और ऊपर से झरते फूलों की राशियों को अपनी बाँहों में झेल-झेलकर उछाल देती हैं। कबूतरों में लीला का उल्लास बढ़ जाता है, वे और भी जोर-जोर से शाखाएँ हिलाकर ऊधम मचाते हैं। नीचे फूलों की वर्षा सी होने लगती है। अंजना उस कुसुम चित्रा भूमि में लोट जाती है। उसकी सारी देह फूलों की राशि में डूब जाती है। फिर कबूतर नीचे उतरकर उसकी निश्चल देह पर कूद-कूदकर खेल मचाते हैं। धीरे-धीरे वे कबूतर उससे हिल चले थे। उसके केशों और कन्धों पर वे जहाँ-तहाँ से उड़कर आ बैठते । कत्थई, नीले, भूरे, जामुनी कबूतरों के अलग-अलग नाम अंजना ने रख दिये थे। I 174 मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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