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________________ यह जीव तो अँधा है। पर इस बार वह उन्हें छिन्न करने का बल लेकर आया हैं। इसी से उपसर्गों से खेलते चनना उसका स्वभाव हो गया है। महानाश की छाया : में चलकर अपनी अविनश्वरता को वह सिद्ध कर रहा है, वत्से!-कल्याणमस्तु!" कहकर योगी ने फिर प्रबोधन का हाथ उठा दिया, और अपने आसन से चलायमान हा। अंजना बाहर से नितान्त अचेत-सी होकर भूमि पर प्रगत थी। पर अपनी भीतरी चिन्मयता में इस क्षण वह योगी की आत्मा के साथ तदाकार हो गयी थी। योगी जब गमन को उद्यत हा तो अंजना को एक आघात-सा लगा। आगे बढ़कर उसने गपनोद्यत योगी के चरण पकड़ लिये और आँसू भरे कण्ठ से विनती कर उठी "देव, शरणागता अनाथिनी को-इस विजन में यों अकेली न छोड़ जाओ। ...अब धीरज टूट रहा है, प्रभो!...मैं बहुत एकाकिनी हुई जा रही हूँ...मुझे बल दो, प्रभो, मुझे शरण दो, मुझे अभय दो"। योगी फिर मसकरा आये और उसी अप्रतिम वात्सल्य के स्वर में बोले "अंजनी, समर्थ होकर कातर होना तुझे नहीं शोभता । सब कुछ जानकर, तू मोह के वश हो रही है: शरण, लोक में किसी को किसी की नहीं है। आत्मा में लोक समाया है, फिर एकाकीपन की वेदना क्यों? इसलिए कि लोक के साथ हम पूर्ण ऐकात्म्य नहीं पा सके हैं। उसो को पाने के लिए आत्मा में यह जिज्ञासा, मुमुक्षा और व्यथा है। उसी प्राप्ति का विराट् द्वार है यह विजन। एकाकीपन की इसी उत्कृष्ट वेदना में से मिलेगी वह परम एकाकार की चिर शान्ति । उपसर्ग, कष्ट, बाधाएँ जो भी आएँ, अविचल उनमें चली चलो। यह तुम्हारी जय-यात्रा है-अन्तिम विजय निश्चित तुम्हारी ही है। पर द्वार तो पार करने ही होंगे, परीक्षा तो देनी ही होगी। रक्षा और त्राण अपने से बाहर मत खोजो, वह अपने ही भीतर मिलेगा!-कल्याणमस्तु!" कहकर मुनि निमिषमात्र में आकाश-मार्ग से गमन कर गये। आसन्न रात्रि के घिरते अँधेरे को चीरती हुई प्रकाश की एक रेखा बनान्तर को उजाला कर गयी। दोनों बहनों ने भीतर अपने को प्रकृतिस्थ और स्वस्थ पाया। मुनि की समाधि से पावन उस भूमि की धूलि लेकर उन्होंने माथे पर चढ़ायी और गफा को अपना आवास बनाया। उन्होंने पाया कि अपनी मोर-पिच्छिका और कमण्डलु मुनि वहीं छोड़ गये हैं, मानो बिना कहे रक्षा का कवच छोड़ गये हैं। दोनों बहनें अपने-अपने मौन सुख और आश्वासन से मुग्ध हो रही हैं। वसन्त ने पिच्छिका से गहा की कुछ भूमि बहारकर स्वच्छ कर ली। फिर आसपास से कुछ तृण-पात लोड़कर उसने अंजना के और अपने लिए शय्या विछा ली। सदनन्तर कमण्डलु ले नदी के प्रवाह पर चली गयी। स्वयं मुँह-हाथ धो जल पिया और अंजना के लिए कमण्डल में जल भर लायी। दोनों बहनें निवृत्त होकर जब थकी-हारी अपनी तृण-शय्या पर लेट गयीं, तब रात्रि का अँधेरा चारों ओर घना हो गया था। शून्य में सांय-साँय करता पवन पुक्तिदूत :: 16
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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