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________________ घर वसा लेगी। बाधा का अब कोई कारण नहीं दीखता। कंवल अवसर और निमित्त । की प्रतीक्षा में बह थी। एक गाँव के बाहर जब इसी तरह, ग्राम-पथ को गक पान्थशाला में वे ठहरी हुई थीं, तभी अंजना की पीड़ा उसके वश के बाहर हो गयी। ग्राम-जनों के साहाय्य और सेवा-शुश्रूषा स एक-दो दिन में यह स्वस्य हो चली। अपनी यात्रा में पहली ही बार चे यहाँ लगातार तीन दिन ठहर गयी थों। अपने अस्वास्थ्य और मूछा की अवस्था में अंजना को भान हुआ कि उसके आसपास के जनों में कुछ काना-फूसी है। कछ लोक-सलम पहेलियों, संकेतों की भाषा में लोगों की जवान पर आ गयी हैं।-अंजना ने पाया कि इन प्रश्नों का उत्तर देना ही होगाः-वह किसकी पुत्री है, किसकी पत्र-वधू है, गर्मावस्था में क्यों वह, राह-राह भटकती विदेशगमन को निकल पड़ी है? क्या अपने कुल, शील, लज्जा का उसे कुछ भी भय नहीं है? गर्भवती माता होकर वह निश्चय ही गृहिणी है-भिक्षुणी वह नहीं है। यदि वह गृहिणी है तो लोक की मिक्षा पर जीने का उसे क्या अधिकार है? इन सबका अन्न खाकर, यदि उसे इन सबके बीच रहना है तो उसे इन लोकसंगत प्रश्नों का उत्तर देना ही होगा। नहीं तो अनजाने ही शायद उन्हें धोखा देने का अपराध उससे हो रहा है। पर इन सारे प्रश्नों के स्थूल उत्तर क्या वाह दे सकती है : नहीं-अपने ही उदवागत पापों का भार, इन सारे दुखों के निमित्त मात्र होनवाल-अपने आत्मीयो पर डालने का गुरुतर अपराध उससे न हो सकेगा। और 'वे'- मौत के मुंह में उन्हें ढकेलकर उनके नाम को कलंकित करती फिरूंगी-: भीतर-ही-भीतर अंजना के आत्म-परिताप की सीमा न थी। जो भी वहादुर-से वह प्रसन्न और स्वस्थ ही दीखती। एक दिन सुयोग पाकर बहुत ही डरते-डरते बसन्त ने अंजना से अनुरोध किया कि अब यो निलक्ष्य आगे बढ़ने में सार नहीं है; मात्रा का श्रम अब अंजना के लिए उचित नहीं। जाने कब किस आपदा से वे घिर बैठे, सो क्या ठीक है। अब इसी ग्राम में दो-तीन महीनों के लिए उन्हें दिक जाना चाहिए। यहीं सुखपूर्वक प्रसव-कार्य सम्पन्न हो जाएगा। तब आगे की आगे देखी जाएगी। वसन्त स्वयं श्रम करके कुछ अर्जन कर लेगो, और यों स्वावलम्बी होकर वे चला लेंगी। पर अंजना पहले ही अपने मन में निश्चय कर चुकी थी। अविचलित, परन्तु अधाह वेदना के स्वर में उसने उत्तर दिया “नहीं जीजी, भूल रही हो तुम। अब एक क्षण भी यहाँ ठहरना सम्भव नहीं है। सवेरे ही यहाँ से चल देना होगा। जनपद और ग्राम-पघ छोड़ अब तुरत वन की राह पकड़नी होगी। भोले-भाले ग्राम-जनों को आजकल से नहीं, बहुत दिनों से जानती हूँ। आदित्यपुर की वसतिकाओं में उन्हें पाकर एक दिन मैंने अपने जीवन को कृतार्थ किया था। उनके प्रति किंचित भी अविश्वास या अश्रद्धा मन में ला सक, 15th :: मुक्तिदूत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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