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________________ हुई, परे हटती जाती है। यात्रा का कहीं अन्त नहीं है। अनेक देश, पुरपत्तन, नदी, ग्राम, खैत-खलिहान पार करती, वे योजना की दूरी लॉयती जा रही हैं।-आसन्न सन्ध्या की वेला में, सह के किसी ग्राम के किनारे, किसी भी खेत के झोंपड़े में, मनुष्य के द्वार पर जाकर वे आश्रय ले लेती हैं। भिक्षा की तरह उनके आतिथ्य का दान सहज ग्रहण कर लेती हैं। रात वहीं बिताकर सवेरे फिर चल देती हैं, अपने पथ पर। अंजना इन दिनों प्रायः मौन रहती है। अपने को धारण करनेवाली धरती, जल, फल-फूल, अन्न से भरी दाक्षिण्यमयी प्रकृति और आसपास बिखरी हुई मानवता, सबके प्रति गहरी कृतज्ञता के भार से वह डूबी जा रही है। उन सबसे जीवन लेकर, वह उन्हें क्या दे पा रही है? देने योग्य कुछ भी तो नहीं है उसके पास। अपनी अक्षमता और अल्प-प्राणता को लेकर उनका मन अपनी लघुता में निःशेष हो जाता है। और बाहर फैलने की प्राण की व्यथा उतनी ही अधिक घनी और अपरिसीम हो उठती है। उसके आसपास अभ्यर्थना लेकर जो ये निरीह ग्राम-जन घिर आते हैं, उनकी आँखों में बह एक निस्पृह अपेक्षा का भाव देखती है। जानने की-परिचय की वही सहज सनातन उत्कण्टा तो है उन आँखों में। उस निर्दोष दृष्टि में छिद्र खोजने की कुटिलता कहाँ है? है केवल बन्दिनी आत्मा की अपनी सीमा की वह अन्तिम विवशता । वह तो है वही अनन्त प्रश्न । मनुष्य की नीरव दृष्टि में जब उसकी पुकार सुनाई पड़ती है, तो जैसे उत्तर दिये बिना निस्तार नहीं है। उसके बिना अपने पथ पर आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। यात्रा का मार्ग धरती और आकाश के शून्य में होकर नहीं है। उन प्रश्न से व्यग्न आँखों की अनिवार्य लगने वाली रूद्धता मे होकर ही यह भाग गया है। तव अंजना का मौन अनायास वागी में मुखर हो उठता। वह अपना परिचय देती। व्यक्ति-सीमाओं से ऊपर होकर वह परिचय, सर्वगत और सर्वस्पर्शी हो पड़ता। भोले-भाले जिज्ञासु ग्राम-जनों की उत्सुकता विशालतर हो उठती है। क्षुद्र व्यक्ति मानो अणु बनकर उस विस्तार में खो जाता। अंजना गौण हो जाती, स्वयं ये ग्राम-जन गौण हो जाते। केवल एक समग्न के बोध में, वे अपने ही आत्म-प्रकाश के आनन्द से आप्लावित हो उटते। तब व्यवहार की रोक-टोक, पूछ-परछ वहाँ आते-आते निःशब्द होकर विखर जाती। पर एक रात से अधिक वे कहीं भी न ठहरतीं। इसी क्रम से आगे बढ़ते, ज्ञाने कितने दिन बीत गये। वसन्त ने सोचा कि उसका रास्ता अब सुगम हो गया है। उसने पाया कि अंजना अब ज़रा भी उदासीन या विरक्त नहीं है। बाहर के प्रति, लोक के प्रति, जीवन के प्रति वह खली है, प्रेममय है। वह अपने आसपास घिर आये मनुष्यों में घुलती-मिलती है, हास-परिहास करती हैं। उनके प्रति वह आश्वस्त है, और असन्दिग्ध आत्मीयता और एकता के भाव से बरतती है। तब उसने सोचा कि अब किसी ग्राम-वसतिका में अंजना को लेकर वह ठहर जाएगी, और कुछ दिन के लिए पुक्तिदूत :: 155
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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