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________________ अंजना के सो जाने पर बड़ी रात तक बसन्त की आँखों में नीट नहीं थी। अनंक चिन्ताओं और विकल्पों से मन उसका अशान्त था। सुब्ध और बेनैन वा करवटें बदल रहो थी। जो होना धा हा होय होरि अव : : हंगा, क्या करना होगा? क्या है अब भाग्य का विधान? गर्भ के भार से पीड़ित, थायल, चारों ओर से त्वक्ता और अपमानिता सोयी है यह भोली लड़की । दुःख को इसने सम्मुख होकर अंगीकार किया है। उसकी क्या सामर्थ्य है जो इस पर दया करे, इसके भाग्य पर आँसू बहाए । फिर भी चिन्ताओं का पार नहीं है, राह असूझ है। अशन भी नहीं है, वसन भी नहीं है। दोनों के शरीर पर केवल एक-एक दुफूल पड़ा है। रत्नों के महल में रहनेवाली युवराज्ञी के शरीर पर रत्न तो दूर, धातु का एक तार भी नहीं है। पानी पीने को पास में पात्र तक नहीं है। कल सवेरे से दोनों के पेट में अन्न का एक दाना भी नहीं पा है। और लिस पर यह गर्भिणी है। पर रुकना नहीं है, चले ही जामा है अदृष्ट के मार्ग पर। अदय, स्यार्थी मनुष्यों की, जगती से दूर, बहुत दूर। सवेरे ब्राह्म-महत में दोनों बहनें उठीं। नदी-तीर पर जाकर शचि-स्नान किया। पास ही पेड़ों तले, नित्य-नियमानुसार सामायिक में प्रवृत्त हुईं। अंजना ने देखा कि पथ की रेखा अन्तर में प्रकाशित हो उठी है। दुविधा का कोई कारण नहीं है। उठने पर बोली बसन्त“कहाँ जाना होगा अब?" तपाक से उत्तर आया "वन की राह पर, जहाँ सबका अपना राज्य है। जीवन वहाँ नग्न और निर्बाध है। सभी कुछ सहज प्रवाही है। प्रभुत्व का मद यहाँ नहीं है। छिपाब-दसव वहाँ नहीं है, इसी से पाप भी नहीं है। माना कि हिंसा और संघर्ष जीवों में वहाँ भी है। पर वह पाप अकपट और खुला है। आदर्शों के आवरणों में ढकी रोज-रोज की पराधीन मृत्यु से, खुलकर सामने आनेवाली वह अकपट मौत सुन्दर है। सब कुछ सरल, खुला और अपना है जहाँ-वहीं होगा अपना वास, बहन-!" "पर नारी का घोला माकर हम इसनी स्वतन्त्र और निरापद कहाँ हैं, बहन?" "भूलती हो जीजी, कोमल हैं इसी से इतनी निर्वल हम नहीं हैं। सबल पुरुष-से गर्विष्ठ विधान को हम सदा से झेलती आयी हैं-अपने धर्म का पालन करने के लिए। पर दुर्बल संस्कार बनकर यदि वही कोमलला हमारे आत्म-धर्म का घात कर रही है, तो वह भी त्याज्य ही है। माना कि कोमलता ल्त्री का अस्तित्वगत धर्म भी है। पर अन्ततः आत्मा के मार्ग में स्त्रीत्व से भी परे जाना है। योनि ती भेदना ही है। और ठीक वैसे ही क्या परुष को भी अपनी पुरुषता में उगरत नहीं होना है? दोनों ही 111. गविनदृत
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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