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________________ ने गर्भ के अम्र पर ही आघात जो किया था । " "जीजी, न याद करो, बिसार दो-जीजी, तुम्हें मेरी सौगन्ध है । " कहते-कहते अपने हाथ से अंजना ने बसन्त का मुँह बन्द कर देना चाहा । पीड़ा शान्त होने पर कुछ देर बाद अंजना ने पूछा “ अपनी अंजनी का भाग्य परख आयी, जोजी ? -- चुप क्यों हो - बोल न ?" मर्म चीर देनेवाली उस कण्ठ की ज्वलन्त वाणी में हँसी की रणकार थी। बसन्त अपनी रुलाई न रोक सकी फक्त ती स शिताच मरती हुई पह आँसू पोंछने लगी। टूटते हुए स्वर में वह बोली ! "...जा आयी बहन नहीं मानी तेरी बात मेरा भी तो पूर्व भव का वैर तुझ पर था, सो वसूल करने गयी थी। तेरा अपमान कराकर ही तुष्ट हो सकी हूँ मैं...! मनुष्य के चोले में धरती पर दानव ही बस रहे हैं, बहन, - मनुष्य पर रहा-सहा जो विश्वास था वह ख़त्म कर आयी। पिता नहीं हैं वे, राक्षस हैं... असुर... नराधम ! क्षात्र धर्म का पाखण्ड करके असत्य से लड़ने में वे मुँह छुपाते हैं। वे करेंगे आसुरी शक्तियों से मानव का भ्राण...?" उत्तेजित होकर बसन्त बोलती हो गयी। पहले तो अंजना चुपचाप सब सुनती रही, फिर गम्भीर अनुनय के स्वर में बोली " बस... बस... बस करो जीजी, मिथ्या से जूझकर अपनो आत्म-हानि न करो। अज्ञानियों से तो सहानुभूति ही हो सकती है-भव की उसी रात्रि में हम सभी तो भटक रहे हैं।" पर बसन्त से आवेश में रहा न गया। सब सुनाकर ही तो उसे चैन था। राजा का एक-एक शब्द उसने दुहरा दिया। सुनते-सुनते अंजना जाने कब मृतवत् हो रही । वसन्त ने देखा, उसे मूच्छां आ गयी है। अपने क्रांधावेश और अपनी भूल पर वह अनुताप से विकल हो गयी। आह, वह पहले ही पीड़ित थी, और ऊपर से उसने आकर ये अंगार चढ़ाये दुखिनी के मर्म पर ? पानी छिड़ककर वह अंजना को होश में लाने का प्रयत्न करने लगी। बड़ी देर बाद अंजना को चेल आया 47 बसन्त की गोद में मुँह ढककर केवल इतना ही निकला उसके मुँह से - अस्फुट, पर ज्वलन्त "... नहीं जीजी... नहीं मर सकूँगी... पिता की आज्ञा लाँघने को विवश हूँ... जीवन और मरण के स्वामी वे आप हैं... वे ही जानें! मैं कुछ नहीं जानती !... और यह जो आ रहा है.....?" कहते-कहते फिर वह एक मार्मिक पीड़ा से कसमसा उठी। भीतर अनिवार जीवन का महास्त्रांत जैले सारी बाधाओं की पर्वत-कारा को तोड़ने के लिए छटपटा रहा था... पुग्निदूत 145
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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