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________________ जा रहा है। और उसके हाथों ने अनुभव किया, पुरुष की बलशालिनी भुजाओं और वक्ष में भीतर- डी - भीतर घुमड़ रहा वह गम्भीर रुवन! भये और गम्भीर कण्ठ से अंजना बोली " अपने पैरों की रज को यों अपमानित न करो देव! उसका एक मात्र बल उससे छीनकर उसे निरी अबला न बना दो!...सब कुछ सह लिया है, पर यह नहीं सह सकूँगी... उठो, देव....!" और भी प्रगाढ़ता से पुरुष की वे सबल भुजाएँ उन मृदु चरणों को बाँध रही हैं। पर वह कोमलता मानो बन्ध्य नहीं है- वह फैलती ही जाती है। उसमें कुमार की वह विशाल टेह मानो सिमटकर एक शुद्ध हो जाने से विएन है। पर वह कोमलता तो अपने अन्दर समाती ही जाती है-अवरोध नहीं देती । वज्र-सी काया टूटे तो कैसे टूटे, बिखरे तो कैसे बिखरे ? अंजना ने उठाने के सारे प्रयत्न जब निष्फल पाये, तो एक गहरी निःश्वास छोड़ मानो हारकर बैठ गयी। दोनों हाथों की हथेलियों से पवनंजय के दोनों गालों को उसने दबा लिया। उनकी आँखों से अजस्र बह रहे आँसुओं के प्रवाह को जैसे सीमा बनकर बाँध लेना चाहा थाम लेना चाहा। फिर अन्तर के मृदुतम स्वर में बोली- "... मेरी सौगन्ध हैं... क्या मुझे नहीं रहने दोगे.......उठो देव,... मेरे जी की सौगन्ध है तुम्हें... उटो...!" पवनंजय उठे और घुटनों के बल बैठे रह गये। आँसुओं के बहने का भान नहीं है। वे प्रलम्ब बाँहें और सशक्त कलाइयाँ धरती पर सहारा लेती - सी थमी हैं। एक बार झरती आँखों से सामने देखा । खड़े घुटने किये हारी-सी बैठी है अंजना | अरे ऐसी है इस हार की गरिमा विश्व की सारी विजयों का गौरव क्षण मात्र में ही जैसे मलिन पड़ गया। अपार वात्सल्य के मुक्त द्वार-सी खुली हैं वे ऑंखें- अपलक, उज्ज्वल, सजल उस पारदर्शिनी सरलता में मन के सारे इन्द्र द्वैत, सहज विलय हो गये! अपने बावजूद पवनंजय, मानो अज्ञात प्रेरणा का बल पाकर अपने को निवेदन कर उठे - "... जानता हूँ कि धरित्री हो, और चिरकाल से अब तक हमें धारण ही करती आती हो ! पर ओ मेरी धरणी, दुर्लभ सौभाग्य का यह क्षण पा गया हूँ, कि तुम्हें अपने दुर्बल मस्तक पर धारण करने की स्पर्धा कर बैठा हूँ...! इस दुःसाहस के लिए मुझे क्षमा न कर सकोगी...?" फिर एक बार आँखें उठाकर उन्होंने अंजना की ओर देखा। उठे हुए जानू एक-दूसरे से सटकर धरती पर दुलक गये थे। उन दोनों जुड़े हुए जघनों के बीच दीखी मानव पुत्र की वही चिर-परिचित गोद उसका वह अशेष आश्वासन ! "हाय, फिर भूल बैठा ! सदा का छोटा हूँ न इसी से अपने छोटे हृदय से तुम्हें 114 मुक्तिदूत -
SR No.090287
Book TitleMuktidoot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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