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एक समालोचनात्मक अध्ययन सन्त साहित्य की शैलीगत या कलापक्ष सम्बन्धी विशेषताएँ
सन्तों के लिए काव्य एक साधन है. साध्य नहीं। सन्तों ने हृदय की सत्यानुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए काव्य को माध्यम बनाया। इस अभिव्यक्ति में वे काव्य के समस्त बहिरंग उपादान रस, छन्द, अलंकार आदि बिसर गये। चूँकि सन्त कवि और कवि कर्म को हेय मानते थे। अत: उन्होंने काव्य सौन्दर्य की अभिवृद्धि हेतु कृत्रिम साधनों की भी उपेक्षा की । यद्यपि उन्होंने सप्रयास अलंकारादि का प्रयोग नहीं किया किन्तु फिर भी सन्त काव्य में रस, छन्द, अलंकारादि स्वतः आ गये हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का कथन द्रष्टव्य है -
___ "इसके रचयिताओं का ध्यान जितना वर्ण्य विषय की ओर है, उतना इनकी रचना शैली की ओर नहीं। यहीं इस साहित्य की एक प्रमुख विशेषता भी है।।
भाषा - सुन्दरदास को छोड़कर प्राय: सभी सन्त कवि अशिक्षित या अर्धशिक्षित थे। साथ ही पिछड़ी हुई जातियों तथा परिवारों में समुत्पन्न हुए थे; अत: इनकी भाषा सरल, कृत्रिमतारहित, भावानुकूल, जन साधारण के उपयुक्त, कहीं कहीं अपरिष्कृत, व्याकरण के दोषों से युक्त साधारण कोटि की है।
सन्त कवि भ्रमणशील थे। अत: उनकी भाषा प्रादेशिक भाषाओं या बोलियों के अप्रत्यक्ष प्रयोग से स्वाभाविक रूप से मिश्रित भाषा हो गई, जिसे विद्वान "सधुक्कड़ी" या "खिचड़ी भाषा" कहते हैं। साथ ही सन्तों ने अपने मत को, विचारों को या अनुभूतियों को जनप्रिय बनाने के लिए क्षेत्रीय भाषा के शब्दों का बाहुल्य के साथ प्रयोग किया है । कुछ सन्त कवियों ने जानबूझ कर भाषा में विविधता का समावेश किया है। जैसे - सन्त सुन्दरदास की भाषा में राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी, पूर्वी, अरबी, फारसी, अपभ्रंश तथा संस्कृत तक के शब्दों का सम्मिश्रण है। इसी प्रकार कबीर, दादू दयाल, मलूकदास आदि ने भी अनेक भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है। सन्तों ने सरल से सरल भाषा में दुरूह से दुरूह दार्शनिक विषयों एवं आध्यात्मिक अनुभूतियों की व्यंजना बड़ी सरलता से की है।
शैली - सन्तों ने शुद्ध मुक्तक शैली में काव्य रचना की। सन्तों के काव्य में गीतकाव्य के तत्त्व- भावात्मकता, वैयक्तिकता, संगीतात्मकता, सूक्ष्मता 1. सन्त साहित्य की रूपरेखा -- आचार्य परशुराम चतुर्वेदी पृष्ठ 20