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महाकवि भूधरदास:
वेद बिवर्जित भेद बिबर्जित, बिबर्जित पाप रु पुन्यं । ग्यान बिबर्जित ध्यान बिबर्जित, बिबर्जित अस्थूल सुन्यं ॥ भेष विवर्जित भीख विवर्जित, विवर्जितइयंभक रूपं । कहै कबीर तिहुँ लोक बिबर्जित, ऐसा तत्त अनूपं ॥ '
उसमें न समुद्र है न पर्वत, न धरती है न आकाश, न सूर्य है न चन्द्र, न पानी है, न पवन, न नाद है न बिन्दु, न काल है न काया, न जप हैं न तप । जोग, ध्यान और पूजा भी वह नहीं हैं। वह शिव शक्ति और अन्य कोई देवता भी
नहीं है।
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वह चार वेद और व्याकरण भी नहीं है। 2 वह अगुण और सगुण दोनों से ऊपर है, अजर और अमर दोनों से अती है, अरूप और अवर्ण दोनों से परे है, पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनों से अगम्य है। वह " है" और "नहीं" दोनों से रहित हैं। 4. उसे द्वैत-अद्वैत, भाव- अभाव, आदि के पक्षों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता है। उस पूर्ण को देखने के लिए पूर्ण दृष्टि की जरूरत है - खंड-खंड करि ब्रह्म को परब-परब लीया बांटि । दादू पूरण ब्रह्म तजि बंधे मरम की गाँठि ॥
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इस प्रकार सन्तों का सदसद्विलक्षण, भावाभावविनिर्मुक्त, अगम, अलख, निरजन, निर्गुण एकमात्र सत्ता वाला राम अनाम होने पर भी नाममय है । यह ठीक है कि वह अरूप है लेकिन यह भी ठीक है कि सारे रूप एकमात्र उसी के हैं। सन्तों का राम निर्गुण है लेकिन गुणमय भी वही है। संसार में जहाँ भी कोई गुण दिखता है, कोई सत्य, कोई शिव, कोई सुन्दर अपनी आभा से चमत्कृत करता है वह आभा उसी राम की होती है। सहजोबाई के शब्दों में सहज ब्रह्म का स्वरूप द्रष्टव्य है -
नाम नहीं औं नाम सब, रूप नहीं सब रूप। सहजो सब कछु ब्रह्म है, निराकार आकार सब,
हैं नाहीं सू रहित है,
1. कबीर ग्रन्थावली दोहा पद 220 3. वही पद 180
5. बानी (शानसागर) पृष्ठ 110
हरि प्ररगट हरि गुप ।। निर्गुन और गुनवन्त । सहजो यों भगवन्त ॥'
2. वही पद 219
4. सन्तबानी संग्रह भाग 1 पृष्ठ 165 6. सन्तबानी संग्रह भाग 1 पृष्ठ 165