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________________ एक समालोचनात्मक अध्ययन कुछ इसको “संत" शब्द का बहुवचन रूप (सन्तः) मानते हैं जो अब एकवचन में प्रयुक्त होने लगा है।' इसी प्रसंग में वेददर्शनाचार्य श्री मण्डलेश्वर श्री स्वामी गगेश्वरानन्द महाराज द्वारा समीक्षित संत शब्द की चार व्युत्पत्तियों को तथा डा राजदेवसिंह द्वारा प्रदत्त व्युत्पत्तियों को भी देखा जा सकता है।' उपर्युक्त सभी सन्दर्भो एवं उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि वैदिक युग से लेकर मध्ययुग तक के साहित्य में एक ओर सन्त शब्द का प्रयोग परमतत्त्व के साधक के अर्थ में हुआ है और दूसरी और साधु, सत्पुरुष और भक्त के अर्थ में। एक अर्थ में वह ब्रह्म है तथा दूसरे अर्थ में वह ब्रह्म का स्वरूप है। आधुनिक साहित्य में सन्त शब्द अस्तित्व वाचक होकर जहाँ एक ओर सत्य की तरफ संकेत करता है वहाँ दूसरी ओर साधुता का भी बोध कराता है। इस प्रकार जहाँ कबीर आदि निर्गुण सन्त इसके अन्तर्गत समाहित होते हैं वहाँ सूरदास, तुलसीदास आदि सगुणोपासक भक्त भी इसी अर्थ को चरितार्थ करते हैं। निर्गुण सन्तों और सगुण भक्तों के साथ-साथ वस्तुतः यह शब्द उन सभी आध्यात्मिक रुचि एवं प्रवत्ति वाले साधनशील व्यक्तियों का बोध कराता है। जिनकी एक कड़ी भूधरदास भी हैं । तत्वत: “सन्त” और “भक्त” में कोई अन्तर नहीं है। भक्त भगवान की धारणा करता है तथा सन्त "सत्" की। दोनों ही पारमार्थिक सत्य या तत्व से सम्बन्धित हैं। हिन्दी आलोचक निर्गुणोपासकों को सन्त तथा सगुणोपासकों को उनसे पृथक् करने के लिए भक्त कहते आये हैं । निश्चय ही यह अन्तर व्यवहारिक है, सैद्धान्तिक नहीं।। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के समस्त भक्ति साहित्य में सन्त और भक्त शब्द समानार्थक या एकार्थक रूप में प्रयुक्त हुए हैं जबकि हिन्दी आलोचना में सगुण ब्रह्म में आस्था रखने वालों को भक्त कहा जाता है और निर्गण ब्रह्म में आस्था रखने वालों को सन्त । आधुनिक हिन्दी समीक्षकों के मत से कबीर आदि सन्त थे। सूर तुलसी, आदि भक्त थे। भक्तों के विषय में नितान्त प्रामाणिक माने जाने वाले “भक्तमाल" में भक्त और सन्त में कोई भेद नहीं किया गया है। वहाँ कबीर भी भक्त है और तुलसी भी। जबकि आलोचना में आजकल तुलसी को सन्त कहना या कबीर को भक्त कहना अज्ञान सूचक माना जाता है। 1. योग प्रवाह- डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल पृष्ठ 158 2. सन्त दर्शन - डॉ. त्रिलोकनारायण दीक्षित पृष्ठ 3 3.'शब्द और अर्थः सन्त साहित्य के सन्दर्भ में '-डॉ. राजदेव सिंह प्रथम संस्करण पृष्ठ 51-57
SR No.090268
Book TitleMahakavi Bhudhardas Ek Samalochantmaka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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