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महाकवि भूधरदास :
इन स्थलों के अतिरिक्त कथानक के बीच-बीच में आयी हुई सूक्तियाँ एवं नीतियाँ ' कथा सम्बद्ध होने के साथ-साथ अत्यन्त मर्मस्पर्शी एवं प्रभावी बन पड़ी हैं।
कथानक को सुगठित और सुगुम्फित होने के कारण उसका प्रभाव सर्वत्र विद्यमान है। यह प्रभाव पाठक को बांधे रखकर आगे पढ़ने के लिये बाध्य करता है । कवि ने शुष्क एवं नीरस सैद्धान्तिक विषयों को भी अपनी साहित्यिक प्रतिभा से सरस एवं बोधगम्य बना दिया है। कथानक का प्रभाव असत् पर सत् की विजय अथवा अवगुणों पर सद्गुणों की विजय के रूप में सर्वत्र झलकता हुआ दिखाई देता है। कवि द्वारा वर्णित विविध जीवन-दशाओं और मानव सम्बन्धों के चित्रण से प्रभावित होता हुआ. पाठक रसमग्न हो जाता है । इस प्रकार पार्श्वपुराण अन्विति और प्रभाव से युक्त कथानक है।
अन्विति एवं प्रभाव की दृष्टि से ही पार्श्वपुराण में कवि ने दृश्यों के स्थान और उनकी विशेषताओं को ध्यान में रखकर वर्णनों की योजना की है। काव्य में विविध वस्तुवर्णनों जैसे - द्वीप, नगर, वन, बाग, राज-दरबार, स्वर्ग, नरक, तीन लोक, वस्त्राभूषण, चैत्यालय, जिनप्रतिमा, समवशरण, पंचकल्याणक, पशुपक्षी, इन्द्र, देव, नारकी, बाल-युवा-वृद्धावस्था, पूर्वभव, चक्रवर्ती का वैभव आदि कितने ही हृदयग्राही वर्णनों का समावेश है। यह सब वर्णन देश, काल, परिस्थिति, कथायोजना आदि से पूर्ण मेल खाता है। इस वर्णन में कहीं भी अप्रासंगिकता और अस्वाभाविकता दृष्टिगत नहीं होती है । उदाहरणार्थ -
कुंकुमादि लेपन बहु लिये। प्रभु के देह विलेपन किये॥ इहि शोभा इस ओसर मांझ। कियो नीलगिरि फूली सांझ ॥
और सिंगार सकल सह कियो। तिलक त्रिलोकनाथ के दियो । मनिमय मुकुट शची सिर धरो। चूड़ामनि माथे बिस्तरो॥
1. पार्श्वपुराण - भूधरदास, कलकत्ता, अधिकार 1 पृष्ठ 5, 6, 7, 8 तथा
अधिकार-4 पृष्ठ 26 एवं 29