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एक समालोचनात्मक अध्ययन
एवं उपदेशपरक हैं। कुछ पद नेमि- राजुल के वियोग श्रृंगार से सम्बन्धित है; जिनमें राजल की पीड़ा अभिव्यक्त हुई है। इन पदों में समाहित भावों को पदसंग्रह के भावपक्षीय अनुशीलन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
__षष्ठ अध्याय में भूधरदास के रचनाओं का कलापक्षीय अनुशीलन किया गया है। इसके अन्तर्गत भूधरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा, छन्दविधान, अलंकारविधान, प्रतीकयोजना, मुहावरे एवं कहावतों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
सप्तम अध्याय में भूधरदास के दार्शनिक, धार्मिक एवं नैतिक विचारों का उद्धरणों सहित सप्रमाण विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
दार्शनिक विचारों के अन्तर्गत भूधरदास ने जैनदर्शन के सभी प्रमुख विषय विश्व, जीव, अजीव (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) आस्त्रवबंध के रूप में संसार के कारण तत्त्व या मुक्तिमार्ग के बाधक तत्त्व, संवरनिर्जरा के रूप में संसार के नाशक या मोक्षमार्ग के साधक तत्व, मोक्ष के रूप में साध्यतत्त्व, वस्तुस्वरूपात्मक अनेकान्त एवं उसका प्रतिपादक स्याद्वाद, निश्चय नय व व्यवहारनय, सप्तभंगी, पंचास्तिकाय, प्रदेश एवं उसकी सामर्थ्य, हेयज्ञेय-उपादेय तत्त्व, पुनर्जन्म एवं कर्मसिद्धान्त आदि का वर्णन किया है।
धार्मिक विचारों में जैनधर्म, धर्म के अंग-आचार और विचार, धर्म का स्वरूप-वस्तुस्वभाव, सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यग्चारित्र, धर्म प्रवृत्तिपरक, सम्यग्दर्शन का विस्तृत विवेचन, देव-शास्त्र-गुरु का स्वरूप, भेदविज्ञान एवं आत्मानुभव, सम्यग्ज्ञान का स्वरूप, सम्यग्चारित्र-सकल चरित्र एवं देश चरित्र का वर्णन किया है।
__सकल चरित्र के अन्तर्गत मुनिधर्म के रूप में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, पाँच इन्दियजय, छह आवश्यक एवं सात शेष गुणों का कथन किया है। साथ ही अनित्य आदि बारह भावनाएँ, उत्तमक्षमादि दशधर्म, क्षुधा-तृषादि बाबीस परीषह, अनशनादि बारह तप, दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का विवेचन किया है।
देशचारित्र या गृहस्थधर्म के अन्तर्गत श्रावक के पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक प्रकारों को ध्यान में रखते हुए पाक्षिक श्रावक के आचरण के रूप में मद्य, मांस, मधु, पंच उदुम्बर फल, जुआ, चोरी, शिकार, वेश्यासेवन आदि सप्तव्यसनों के दोष बतलाते हुए उनके त्याग का उपदेश दिया है। नैष्ठिक