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महाकवि भूधरदास : मोह-माया तथा इन्द्रिय-विषयों से अपने मन को हटाकर निर्गुण, सर्वव्यापक सर्व शक्तिमान परमतत्त्व की ओर लगाकर अपना आत्महित करने तथा समाज को विश्वकल्याण के पथ पर अग्रसित करने का महत्त्व प्रतिपादित किया। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नाम-जप, सत्संग, सद्गुरु की महिमा का उद्घोष किया । आत्मा की अमरता का प्रतिपादन करते हए उसी में ब्रह्मज्योति के दर्शन की बात कहीं। मानव जीवन को समता, सहिष्णुता, विश्वबन्धुता की ओर अग्रसर भरने के लिए अतिम तीर में सत्य, दया, क्षमा, प्रेम आदि का महत्त्व प्रतिपादित किया। आत्मशुद्धि के लिए काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि मनोविकारों का परित्याग करने का उपदेश दिया। साथ ही उन्हें जीवोन्नति में बाधक मानते हुए उनकी कटु आलोचना भी की। पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की सन्तुष्टि एवं सुव्यवस्था के लिए पातिव्रत धर्म एवं सन्तोष भाव की महिमा भी बतायी।
सन्त कवियों के काव्य में एक विशेष प्रकार का जीवन-दर्शन अभिव्यक्त हुआ है; जिसमें संसार की निस्सारता एवं जीवन की क्षणभंगुरता का प्रतिपादन किया गया है तथा कामक्रोधादि से परे रहकर सर्वशक्तिमान परमात्मा निर्गुण ब्रह्म के साक्षात्कार के निमित्त नित्य निरत रहने को कहा गया है । एतदर्थ योग साधना की महिमा बतलायी गयी तथा सहज समाधि का महत्त्व प्रतिपादित किया गया । व्यक्तिगत जीवन में इन आदर्शों को ग्रहण करने के साथ-साथ सामाजिक जीवन में त्याग, औदार्य, वैराग्य, सन्तोष, दया, क्षमा आदि गुणों को अपनाने का आग्रह किया गया । इन सन्त कवियों ने लौकिक जीवन को भी अत्यन्त सरल, निर्मल और स्वाभाविक बनाने के उपदेश दिये तथा सदाचार आदि पर विशेष जोर डाला । इस सबका फल यह हुआ कि सामान्य भक्ति मार्ग खड़ा हुआ, जिसका आधार परोक्ष सत्ता की एकता और लौकिक जीवन की सरलता हुआ। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार - “कहीं सन्तों की कविता में आत्मविचार की लहरें है, कहीं भावभगति का गुणानुवाद, कहीं नामस्मरण का माहात्म्य और कहीं सहजशील की साधना ।” डॉ. श्यामसुन्दरदास का मत है कि “सन्तों" की विचारधारा सत्य की खोज में बही है, उसी का प्रकाश करना उनका ध्येय 1. हिन्दी साहित्य- डॉ.श्यामसुन्दरदास पृष्ठ 143 2. हिन्दी साहित्य की परख डॉ. परशुराम चतुर्वेदी