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मदनजुद्ध काव्य
धारण पालण निग्गह चागजओ संजम भणिओ ।" धर्म का अर्थ है – सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्ववरा विदुः ॥ रूह का अर्थ है रूप
सोज - सीधा
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कटिहइ - कमर कसकर
इस प्रकार कमर कसकर वह विवेक अरहंत, सिद्धके ध्यान में लीन हो गया। पंच परमेष्ठी मन्त्रोंका उच्चारण ही उसकी गर्जना है। उन मंत्रों से और शुद्धात्मतत्व में लीनता होने से जीव शीघ्र ही “-७ वें गुणस्थान से चढ़कर आठवें, नौवें, दसवें गुणस्थान में पहुँच जाता है जहाँ मदन और मोह का पूरा नाम शेष हो जाता है। यदि मोह का उपशम भी हो जाता है तो पुनः उसको खोजकर उसका क्षय कर दिया जाता है। ऐसी क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर मोह के साथ अन्य कर्मों को भी नष्ट कर दिया जाता है। वह विवेक इस प्रकार का संयम धारण कर रहा है ।"
सुभटाहं ।
दोहा छन्द :
वाह ।। ६५३ ।
ढोलिय तिन्निङ' भुवया खलु लख सो मई कहिं वि न देखियउ जो मुझे पकड़ड़ अर्थ- मैंने तीन लोकों में ढूँढ़ लिया । जहाँ-तहाँ सुभटों की सेनाएँ मिली उनमें मैंने ऐसा वीर नहीं देखा, जो मेरी भुजा को पकड़ सके (लड़ सके ) |
व्याख्या— मदन एक रागमयी भाव है और रति विकृति रूपी परिणति है। आध्यात्मिक रूप से एक ही आत्मा में विकारी और अविकारी दोनों प्रकार के परिणाम रहते हैं । जब मदन की प्रबलता होती हैं तो अनुप्रेक्षादि वैराग्य भाव मंद पड़ जाते हैं और अदृश्य से हो जाते हैं। माया लोभ वेद परिणामों की विशिष्टता सामने आ जाती है। इसलिए मदन ने करनी के कच्चे उन शूरमाओं पर ऐसा प्रभाव डाला कि उसी आत्मा में वे राग को पछाड़ नहीं सके । मदन रतिके सामने अपनी इसी वीरता का गुणगान कर रहा हैं । ase बडेरी पिरथवी धरमहि गष्वहि कीसु ।
तौ खलु पोरिसु कंत तुझु जड़ जित्तहिं आदीसु । ६६ ।। अर्थ - हे कंत ! बड़ों की यह पृथिवी बहुत बड़ी है । इसमें और अपने ही घर में गर्व कैसा ? तुम्हारा बल पौरुष तभी है, जब तुम जाकर भगवान् आदीश आदि तीर्थंकर ऋषभदेव को जीतो ।
व्याख्या --- रति ने मदन से कहा- घर में गर्व करना सभी जानते १. ख. तिणिड, ग. तिणि