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________________ मदनमुख काव्य है। घर में ही अपनी बड़ाई करने से कोई बड़ा नहीं होता। जब बाहर जाकर शक्तिशाली को जीतो तब शक्ति का पता लगता है । आपने अभी तक इसी कर्मपुरी के निवासी शंकरादि देवों को ही अपने वश में किया है किन्तु धर्मपुरी में प्रवेश नहीं किया। आज संसार में धर्मपुरी के निवासी परमवीत्तरागी आदीशप्रभु की प्रसिद्धि का बड़ा यशोशान हो रहा हैं। यदि तुम वहाँ प्रवेशकर उन देवाधिदेव परमात्माको जीत लो तब मैं आपके बल, पौरुषको समझ लूँगी । जीउ । अब तिनि नारि विछोइयद तब तमकिङ तिसु जणु प्रजयंती अगिणि महि लेकरि डालिङ श्रीउ ।। ६७ ।। अर्थ – जब उसकी ( मदन की ) नारी (रति) ने विक्षोभ उत्पन्न किया तब उसका जीव तमक (मदन रोष से भर गया। जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्नि में घी डाल देने से और कनक है, उसी प्र वह (मदन) भी अत्यधिक क्रोधित हो गया । I व्याख्या -- यह आत्मा अनन्त गुणों का भंडार है । इसमे सापेक्ष अनन्त धर्म विद्यमान हैं और उनमें अनन्त परिणमन भी पाए जाते हैं वहीं भाव जब परिणमन कारण के बिना कहे जाते हैं तब शुद्धभाव कहलाते हैं । मन्दकषायों के सम्बन्ध से कहे जाएँ तो शुभ भाव कहलाते हैं और मिथ्यात्व तथा तीव्रकथाओं से सम्बन्धित कहे जाएँ तो अशुभभाव कहलाते हैं । जिस प्रकार वायु के लगने से अग्रि प्रज्ज्वलित होती हैं और घी के संसर्ग से अधिक भीषण रूप से प्रज्ज्वलित हो उठती है । उसी प्रकार प्रत्येक कार्योंके प्रेरक निमित्त होते हैं । ४८ इन निमित्तों द्वारा भावोंको तीव्र उदय में ले आने से इन्हें नोकर्म की कहा जाता है तथा प्रकट होने वाले भावोंको त्रिभाव, भाव या विकारी भाव कहते हैं । भाव दो प्रकार के हैं - १. भूयमाण और २. क्रियमाण । कमों के निमित्त बिना होने वाले भाव भूयमाण और कर्मोक द्वारा होने वाले भाव क्रियमाण कहलाते हैं। भूयमाण भाव स्व होनेके कारण उपादेय शुभ भाव हैं और क्रियमाण पर होनेके कारण हेय अशुभभाव हैं । क्रोधादि कषाय परके भाव होने से निमित्त प्राप्त करके तीव्र हो जाते हैं और आत्माको पराधीनता के बन्ध में डाल देते हैं । उपर्युक्त छन्द की बड़ी विशेषता हैं कि क्रोध तो मदनको पहले से ही था किन्तु रतिके वचनोंने उस पर घृत का कार्य किया । यह कथननो. पकथन रूपक वास्तव में अपना भाव ही अपना तिरस्कार करता है, उसी से चित्त मलिन होता है । वही मलिन भाव घी का कार्य करता है और इसीको कवि ने श्री का डालना कहा है । !
SR No.090267
Book TitleMadanjuddh Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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