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________________ मदनमुख काव्य 33 त्रिदंडी साधु तथा केशों का लोच करने वाले मुनि, काली (देवी) के उपासक एवं सर पर खड़े रहने वाले भक्तों को भी छला । उससे कौन-कौन नहीं छला गया? उसने यक्ष, राक्षस, गंधर्व, गुरु, सबल योद्धा, देवगण तथा पशुपक्षी आदि को धर (पकड़) कर अपनी स्तुति करने वाला दास बना दिया। (इन सबको अपने वशमें कर लिया) इस प्रकार का (सर्व विजयी) दुस्सह दनराज, ह. अ.यः । 2 : डसं मापा जानकर, अपना आसन तृण ग्रहणकर दौड़ चले । ध्याख्या--संसार में मोह को जीतनेवाले अनेक तपस्वी, महात्मा थे, किन्तु मदनराजा ने रम्भा, मेनका आदि अप्सराओं द्वारा उनके अन्त:करण में राग उत्पत्र कर दिया । तब वे भी मोह के आधीन होकर उसके दास बन गए । इससे सभी हारे है । इसके उदय होने पर सभी पुरुष अपना धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ भूल जाते हैं । युद्ध में अपने प्राणों को भी नष्ट कर देते हैं । आत्मानुशासन में कहा गया है अन्धादयं महानन्यो विषयान्धीकृतेक्षणः । चक्षुषान्यो न जानाति विषयान्यो न केनचित् ।। मदनका अपर नाम अनंग भी है, इसीकारण यह आत्माके सभी प्रदेशामें इस प्रकार प्रवेश कर जाता है, कि यह विषयों से रात-दिन व्याकुल चित्त होकर भटकता रहता है । यही तामसी वृत्ति है । तुलसीदास जी ने भी कहा हैं "हाले फूले हम फिरत होत हमारो व्याब । तुलसी गायन जायके देत काठ में पाँव ।।" यह राग ही महान बन्धन है । वे तपस्वी भी मोह ग़जाके बुलाने पर दौड़े चले आए । के के जैन के सेवणहार ते तो किये भ्रष्टाचार भोगिय सुख अपार संसार तणे । वई देखत जु भए अंध पडिय करम फंद किए जु कुगति बंध जनम घणो । जैसे वंभदत्त चक्कपति कामभोग इरि थिति गयड नरकगति सातमें सुणौ । आयो आयौ रे मदनराइ दुसहु लग्गउ पाइ चलिय सुर पलाइ गहिदि तिणो ।।४९।। अर्थ--(इस मदनराजा ने} जितने-जितने जैन-धर्मके सेवन करने वाले FEEEEEEEE
SR No.090267
Book TitleMadanjuddh Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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