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मदनजुद्ध काव्य
एक छत्र शासन है । वह मोह आत्मा को कोल्हूके बैल की तरह भार लिए हुए धुमा रहा है । उससं विषयों का अभिलाषा रूप तृष्णा जागृत होती है, जो शान्त नहीं रहने देती है । उसका यह व्यापार हर क्षण चलता रहता है । मोहके ये चारों दूत भी विकारी प्रवृत्तिके हैं जो सदैव उसके साथ रहते हैं ।
खोजत खोजत देस सवाए पुन रंगपणि' तब आए । करि भरड़ाकउ वेसु पइडे, धीरज कोटवालि तब दिढे ।।१४।।
अर्थ-सभी देशोंमें खोजते और देखते हुए वे दूत भी जब पुण्यरंग पट्टनमें पहुंचे, तब उन्होंने अपनी भ्रष्टाकृति (गुप्तवेश) धारण किया और नगरमें प्रवेश किया । वहाँके धीरज नामक कोतवालने उनकी भ्रष्टाकृति देखकर उनके दुष्ट होने का अनुमान लगा लिया ।
व्याख्या—इसी आत्मामें पुण्यपुरी है जहाँ सत्य नामका राजा राज्य करता हैं । उसका ज्ञान नामक मन्त्री हैं और धीरज नामक कोतवाल है । उनके कारण गुण रूपी प्रजा निर्भय रहती है । उस नगरीमें इन दुष्ट दूतों का प्रवेश होना मुश्किल था । फिर भी कपट देश बनाकर उन दूतोंने पुण्यभावोंमें घुसने की चेष्टा की । तब धीरज कोतवालने उन्हें देखा । प्रथम दूत कपट था जिसे मनमें अन्य, वचन में अन्य एवं कार्यमें अन्य रूप परिणति करने वाला कहते हैं । द्वितीय कुशास्त्र अज्ञानको कहते है, जो अपना यथार्थ रूप नहीं जानने देता है । तृतीय पाप है जो पुण्यकी तरफ परिणत्ति नहीं होने देता । इसी पापके द्वारा आत्मा फँसती है और बन्ध रूप दण्ड पाती है । चतुर्थ द्रोह है जो शुभ गुणोंसे विरोध रखता है और प्रीति नहीं होने देता । सब पर अविश्वास ही प्रगट करता है तथा आत्माको एक स्थान पर नहीं रहने देता ।। दोहा :
धीरजु देखि कुदरसनी बहु ताडण तिन्ह दीय । पइसण मिले न नयरमहिं लेकर भागे जीय ।।१५।।
अर्थ-धीरज कोतवालने देखा कि ये देखने में खोटे हैं, अर्थात् कुभेषी, खोटे विचार वाले, भ्रष्टमति हैं, तब उन्हें ताड़ना (डॉट) दी और कहा कि तुम सभीको इस नगरमें प्रदेश नहीं मिलेगा, तब वे अपने प्राण लेकर भागे। १. रक. रंगपट्टन