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मदनजुद्ध काव्य 1. डालि चडिउ जणु वांदरउ चूतडि बोछु खाधु ।। (30/2)
__ आम्र वृक्ष की डाली पर चढ़े हुए बन्दर को उस वृक्ष का स्वामी अच्छा नहीं लगता और वह उसे काट खाता है । 2. "रहहिं कि कंजर वापडे जहिं वणि केहरि गंध ।। (34/4)
जिस बन में सिंह की गंध आती हो वहाँ विचारे हाथी कैसे रह सकते हैं ? __ "भग्गहंपिट्टि न धाइयई पुरुषहँ इहु इ पमाणु' ।। (562) भगोड़ों की पीठ पर नहीं दौडना चाहिए । पुरुषों के लिए यही वचन प्रमाण है ।
वडह बडेरी परिथवी घरमहि गब्वहि कीसु '(66/1)
बड़ों की यह पृथिवी बहुत बड़ी है । इसमें और अपने ही घर में गर्व कैसा 9 5. "जै नीति मारग पुरुष चालहि तिन्हरू सीझहि काम । (100/4)
जो पुरुष न्याय और नीति के मार्ग पर चलते हैं, उनके सभी कार्य सिद्ध होते
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6, रणु देविखवि जे नर खिसहिं तिन्ह की जननी खोडि । (101/4)
जो मनुष्य युद्ध की भीषणता के कारण खिसकने (भागने) लगते हैं, उनकी माता खोडी (बन्ध्या) हैं । 7. "वाणी णिम्मल अमियमय सुणि उपजई सुह झाणु ।।" (140/4)
प्रभु की निर्मल अमृतमयी वाणी को सुनकर सभी के हृदय में शुभ-ध्यान उत्पन्न हो गया । 8. "मुह मीठा मनि मलिण पंचमहि भला कहा विहिं ।
इण कम्मिहि नरु जाणि जूणि तिजंचरु पावहिं ।। (143)
जो मनुष्य मन में मलिन भाव रखकर मुख से मधुर शब्दों द्वारा पंचजनों में सज्जन कहलाते हैं, वे छद्मवेषी पुरुष अपने इन कर्मों के कारण तिर्यंच योनि को प्राप्त करते हैं। 9. इम जे पालहिं भाव सिउं यहु उत्तमु जिणधम्मु ।
जगमहि हवऊ तिन्ह तणउ सकयत्थउ नरजम्म।। ( 151 )
जो क्षायक भाव पूर्वक उत्तम जिनधर्म का पालन करते हैं, उनका इस लोक में मनुष्य जन्म कृतार्थ होता है ।
वर्णन प्रसंग युद्ध-प्रसंग
प्रस्तुत कवि ने युद्ध-वर्णन अत्यन्त स्वाभाविक रूप में किया है । कवि बृचसज