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मदनजुख काव्य मोहह मय खंडणु ज्ञानह पंडणु चद्धिउ विवेक भुवालो (124)
जिसका चित्त निर्मल है और जो निरन्तर भक्ति करता है तथा जिसका पुखरूपी आम्र विकसित है ऐसा विवेक राजा, मोह का मद खंडन करने के लिए ज्ञान का भूषण स्वरूप चढ़कर चल दिया ।।
कवि ने जिनेन्द्र के रथ का वर्णन भी रूपक के माध्यम से किया है, जिसमें जैन दर्शन के समस्त तत्त्वों का उद्भाबन हो जाता है ( देखिए, पद्य० 132 ) उत्प्रेक्षा
उत्प्रेक्षा अलंकार वहाँ होता है जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना की जाती है और सम्भावना एकरूपता से की जाती है । साम्यरूप विवक्षा का यह अलंकार कवियों को बड़ा प्रिय रहा है । इसमें कवि के समझ अपनी मधुर कल्पना के मुक्त प्रयोग का विस्तृत क्षेत्र रहता है और वह सौन्दर्यानुभूति की कोमल अभिव्यक्ति का प्रसार इसमें व्यापक रूप से करता है । ___मयणजुद्ध में भी कवि ने इस अलंकार के माध्यम से नवीन कल्पनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान की है। जैसे
"जब तिनि नारि विछोइयउ तब तमकिउ तिसु जीउ । जणु प्रजलंती अगिणि महि लेकर ढालिउ घीउ ।। (67)
अर्थात् जब मदन की पत्नी रति ने उसे विक्षोभ किया तब वह रोष से उबल पड़ा वह ऐसा प्रतीत होता था, मानों प्रज्ज्वलित अग्नि में घी डाल दिया गया हो ।
एक अन्य उदाहरण देखिए"जिन्ह तिलक मृगमद तिख भल्लिय चीर धज करकंतियं । "जिन्ह कानि कुंडल कंद मनमथ मूढ यडि बझंतिय (39)
अर्थात् नारियों ने उत्तम वस्त्र धारण किए । वे ( वस्त्र ) ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों ध्वजाएं फहराकर विजय की घोषणा कर रही हों । जिन नारियों ने अपने कान में कुण्डल पहने हैं, वे ( कुण्डल ) ऐसे प्रतीत हो रहे हैं कि मानों मन्मथ ने मूढ जनों को बाँध लिया हो।
युद्ध-वर्णन प्रसंग में कवि ने मौलिक उद्भावनाएं की हैं यथा“वे अणिय जोड़ि जुट्टिय भुवाल । तहँ पड़हिं खग्ग जण अगणिझाल ।। (130)
अर्थात् जब सेना एकत्रित कर राजा आपस में लड़ाई कर रहे थे और खड्ग चला रहे थे तब ने खड़ग ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों अग्नि की ज्वाला ही जल रही हो ।