________________
मदनजुद्ध काव्य
प्रति अपने मन में दयाभाव रखने को अनुकम्पा कहते हैं । जो विनय अर्थात् मान-कषाय का त्याग करते हैं, गुरुजनों का आदर करते हैं, मन, वचन और कायकी एक रूप प्रवृत्ति से सत्यभाव की प्रवर्तना करते हैं, सदाकाल कोमल परिणाम अर्थात् भावों में कठोरता का त्याग करते हैं
और मन में किसी भी जीव से ईर्ष्या द्वेष को नहीं रखते, वे मनुष्यगति में जन्म लेते हैं । यही सर्वज्ञ देव का वचन है ।
राग सहितु संजमु जि के वि मुनि बरतई पालहिं सावयधम्मि जि लीण दिट्टि जे समिय निहालहिं विणु रुचि जिहँ निरजरउ बाल तपसी सपु साहि इसु सभाइ जिणराइ कहिउ देवहँ गति बोधर्हि ।।१४५।।
अर्थ-(जो मनुष्य तिर्यंच) संयम अर्थात् मुनिव्रत रागसहित जिस किसी भाव से ... १५ से पानते है या शा।45-धर्म में लीन दिखलाई पड़ते हैं एवं समय अर्थात् आत्मा को देखते हैं और बिना रुचि (अभिप्राय) के जो निर्जरा होती है, (साथ ही) जो बाल तपस्वी (अज्ञानी साधु) तप की साधना करते हैं, जिनराज ने कहा है कि-~-इसप्रकार के स्वभाव से वे देवगति को बाँधते (प्राप्त करते) है ।
व्याख्या-देवगति का वर्णन करते हए प्रभु ने उसकी प्राप्ति का उपदेश दिया, जो संयम का पालन करते हैं अर्थात् पाँच व्रतों को धारण करते है, समितियों का पालन करते हैं, कषायों का त्याग करते हैं एवं तीनों गुप्ति का पालन करते हैं, उससे देवगति का बन्ध्र होता है । कहा गया है
"वदसपिदिकसायादंडाण तहिंदियाण पंचण्हं । धारणपालमणिग्गहचागजो संजमो भणिओ ।।"
संयम दो प्रकार हैं इंद्रिय संयम और प्राणी संयम । पाँच इन्द्रिय एक मन, तथा षट् काय के जीवों की रक्षा के भेद से संयम १२ प्रकार का भी है । पाँच समिति, पाँच महाव्रत एवं तीन गुप्ति को धारण करने से संयम १३ प्रकार का भी कहा गया है । सरागी जीव को २८ मूलगुणसहित जो संयम होता है, उसे सम्यग्दर्शन सहित होने से भाव की अपेक्षा सरागसंयम कहते हैं । सम्यग्दर्शन रहित जो मुनिव्रत पालते हैं उसे द्रव्यलिंगी मुनि कहते हैं । इन दोनों प्रकारों से देवायु की प्राप्ति होती है ।
इसी प्रकार ११ प्रतिमारूप श्रावक धर्म में जो प्रवृत्ति करते है--