SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मदनजुद्ध काव्य इन सूत्रों द्वारा मनुष्यायु का आव बंध होता हैं । बहु मायाकेलवहिं कपटु कहि पर मनु रंजहिं अति कूडिहि अवगूढ़ करिवि छलु परजिय पंचहिं मुह मीठा मनि मलिण पंचमहि भला कहाविहि तिज्जंचरु पावहिं ।। १४३ ।। इण कम्मिहि नरू जाणि जूणि अर्थ - ( जो जीव तन से) बहुत मायाचारी कहते हैं, वचन से कपट की बातें कहकर दूसरे के मन को आनन्दित करते हैं । अतिगूढ़ लेखोंको गुप्त रूप से लिखकर (अथवा छपवाकर) दूसरे जीवों को लगते हैं तथा मन में मलिन भाव रखकर मुख से मधुर शब्दों के द्वारा पंचजनों में भला कर्म) के कारण (अच्छा ) कहलाते हैं, वे मनुष्य इन कर्मों (मन, वचन, तिर्यंच-योनि को प्राप्त करते हैं । १०० व्याख्या - इस छन्द में तिर्यंचगति गमन के कारणों पर प्रकाश डाला गया हैं । माया अर्थात् छल कपट करने से तिर्यंचगति का आस्त्रव होता है – “माया तैर्यग्योनयस्य" । मन, वचन और काय अर्थात् शरीर से उगना, अन्य करना, अन्य कहना और अन्य विचारना, ये ही माया के कार्य हैं। इसलिए प्रभु का यही उपदेश है कि मायाचारी रूप अशुभ करनी को सभी का यही उपदेश है कि मायाचारी रूप अशुभकरनी के कर्म मत करो । अपनी आत्मा का हित करने के लिए आर्जन भावों को धारण करो, जिससे सद्गति की प्राप्ति हो सके । भद्द प्रकृति जे होहिं ध्यानि आरति न अणुकंपा चिति करहिं विनय सतभाइ सदाकाल परिणाम मनि न राखहिं चहुटंटहि पयट्टहिं । मच्छर मति कहियज इम सखतिति नर पावहिं मानुष गति ।। १४४ ।। अर्थ -- (जो जीव) मद्र ( अच्छी ) प्रकृति के होते हैं, आर्त्तध्यान में प्रवर्तन नहीं करते एवं चित्त में अनुकम्पा करते हैं, विनय और सत्य भावों से प्रवर्तते हैं, जिनके परिणाम सदाकाल कोमल रहते हैं और मन में मात्सर्य बुद्धि नहीं रखते सर्वज्ञदेव ने कहा है कि ऐसे जीव मनुष्यगति को प्राप्त करते हैं । ने बतलाया व्याख्या - मनुष्यगति-गमन का वर्णन करते हुए प्रभु कि जो जीव दूसरों का भला करते हैं, मिथ्यामार्ग से झुड़ाकर सन्मार्ग में ले जाते हैं तथा आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़ाकर शुभ ध्यान में प्रवर्तन कराते हैं वे मनुष्यगति के पात्र बनते हैं । दूसरों के दुःख के
SR No.090267
Book TitleMadanjuddh Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy