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________________ मदनजुद्ध काव्य इस वर्णनसे साक्षात युद्धका चित्रात्मक रूप उपस्थित हो गया है । सम्यग्दृष्टिकी आत्मामें इसी प्रकारका द्वन्द्व चलता रहता है किन्तु जो वीर होता है, विजयश्री उसका दामन पकड़ लेती है । आदीश प्रभुकी आत्मा ऐसी ही वीर है । वहाँ विकार उपस्थित होते ही नहीं है । जहाँ के तहाँ सत्तामें से किनारा कर जाते हैं अर्थात् पर रूप उदय होकर निकल जाते बावीस परीसह उठिय. गज्जि लखि धीरज सुभटहि गइय भज्जि आइयड कलहु तब कल कलाइ दडि गयउ दुसह तिसु खिमा पाइ ।।१०९।। अर्थ-तब बाइस परीषह उठकर गर्जना करने लगी । वे सभी धीरज नामके सभट (वीर) को देखकर भाग गई तब कलकलाता (हल्लाकरता) हुआ कलह नामका वीर सामने आया । उसके पीछे क्षमा दौड़ी तब वह दुस्सह भी दौड़ा चला गया । सयाकाणा-उपर्ग, परीषत आदि बाधक कारण धैर्यशाली परुषों पर ही तीन आक्रमण करते हैं । उनके रोकनेका एक मात्र उपाय धैर्य है। धैर्य के समक्ष सभी हार जाते हैं । इन परीषहोंसे भगवानके ऊपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सका । ६ मास तक भगवानने उपवास धारण किया फिर छह मासतक विधि न मिलनेके कारण आहार ग्रहण नहीं कर सके । अत: एक वर्ष तक क्षुधा परीषह सही पर धैर्यशाली होनेके कारण उन्हींकी विजय हुई । जहाँ क्षमा होती है, वहीं कलह नहीं रहती । कलह दोनों पक्षोंसे होती है । क्षमा सदैव भगवानके साथ रही । अत: उन्हें कलहको देखनेका अवसर ही नहीं मिला । भगवानके सानिध्यमें मनुष्य तो क्या पशुओंका भी बैर-विरोध (कलह) समाप्त हो जाता है । उनके अतिशयोंमें बतलाया गया है नहीं अदया, उपसर्ग नहीं, नहीं कवलाहार | सब जीवोंमें मैंत्री भाव । हुक्किपउ झूठ मूरखु अंगेजु सतराइ गंवायउ तासु खोज कुस्सीलु पहुसज दुचित्तु बलु करिवि विदारिउ वंभवतु ।।११०।। अर्थ-जब झूठ ने मूर्ख को अंगेज (अंगीकार) किए हुए (रणांगण में) प्रवेश किया तब सत्यराजा ने उसकी खोज (अस्तित्व) को मिटा दिया । इसके पश्चात (दुष्ट चित्तवाला कुशील भी आ पहुँचा । उसे ब्रह्मचर्यव्रत
SR No.090267
Book TitleMadanjuddh Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuchraj Mahakavi, Vidyavati Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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