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________________ लघुविद्यानुवाद इत्थं सदैव सकलीकरणं यथाव । सं भावयतिमशेष मलंघ्य शक्तिः ।। भूतो रगादि विष किल्विष दु.ख मुग्रं । निजित्य निश्चय सुखान्यनु भूयतेऽसौ ॥ मन्त्रसाधन को विधि जो परुप मन्त्र साधन के लिए जिस किसी स्थान मे जावे, प्रथम उस क्षेत्र के रक्षक देव से प्रार्थना करे कि मैं इस स्थान मे, इतने काल तक ठहरूँगा, तब तक के लिए आज्ञा प्रदान करो, और किसी प्रकार का उपसर्ग होवे तो निवारियो-क्योकि हमारे जैन मुनि भी जब कही किसी स्थान मे जाकर ठहरते है तो वहा के रक्षक देव को कहते है कि इतने दिन तक तेरे स्थान मे ठहरेगे तू क्षमाभाव रखियो। इस वास्ते गृहस्थियो को अवश्य हो उपरोक्तानुसार रक्षक देव से आज्ञा लेनी चाहिये ।। १ ।। जब मन्त्र साधन करने के वास्ते जावो तव जहाँ तक हो ऐसे स्थान मे मन्त्र सिद्ध करो जहाँ मनुष्यो का गमनागमन न हो जेसे अपने जैन तीर्थ, मॉगी तुगीजी, सिद्धवरकूट, रेवा नदी के तट पर या सोनागिरोजी या और जो अपने जैन तीर्थ एकान्त स्थान मे है, या बगीचो के मकानो मे, पहाडो मे तथा नदी के किनारे पर या निर्जन स्थान मे, ऐसे स्थानो मे मन्त्र सिद्ध करने को जाना चाहिये। जब उस स्थान मे प्रवेश करो, वहाँ ठहरो तो मन, वचन, काय से उस स्थान का जो रक्षक देव या यक्ष आदि है उसका योग्य विनय मुख से यह उच्चारण करे कि हे इस स्थान के रक्षक देव मै, अपने इस कार्य की सिद्धि के वास्ते तेरे स्थान मे रहने के लिये आया हूँ तेरी रक्षा का आश्रय लिया है, इतने दिनो तक मै तेरे स्थान मे रहने के लिये आया हूँ तेरी रक्षा का आश्रय लिया है, इतने दिनो तक निवास के लिये प्राज्ञा प्रदान कीजिये । अगर मेरे ऊपर किसी तरह का सकट, उपद्रव या भय ग्रावे तो उसे निवारण कीजिये ।। २॥ जब मन्त्र साधन करने जावो तो एक नौकर साथ ले जाओ, जो रसोई की वस्तु लाकर, रसोई बनाकर तुमको भोजन करा दिया करे। तुम्हारा धोती-दुपट्टा धो दिया करे, जब तुम मन्त्र साधन करने बैठो, तब तुम्हारे सामान की चौकसी रखे ।। ३ ।। जो मन्त्र साधन करना हो पहले विधिपूर्वक जितना-जितना हर दिन जप सके उतना हर दिन जप कर सवा लाख पूरा कर मन्त्र साधन करे, फिर जहाँ काम पडे उसका जाप जितना कर सके १०८ बार या २१ बार या जैसा मन्त्र मे लिखा हो उतनी बार जपने से कार्य सिद्ध होवे। मन्त्र शुद्ध अवस्था मे जपे। शुद्ध भोजन करे । और मन्त्र मे जिस शब्द के आगे दो का अक हो उस शब्द का दो वार उच्चारण करे।। ४ ।।
SR No.090264
Book TitleLaghu Vidyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLallulal Jain Godha
PublisherKunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages693
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size28 MB
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