________________
५३४
लघुविद्यानुवाद
बीजै स्त्रि भुवन "भाष्यन्ति ई रूपा" सि क्षा क्षो क्ष प्रबल वलयुते विस्फुरन्ति दशी 'त्व' म सीत्यर्थ --
अथ यन्त्रोद्धार चक्र विक्रान्त कीति रिती पदेन पटकोण चक्रे कणिकाया समति कोति.। कोणपु पट् सु ा हु क्षु ह्री चक्रे इति पट् बीजानि उपरी क्लि क्लिन्ने क्लि नित्ये किलि किलि इति क्षा आ उ इति दक्षिणे उत्तरे सप्त तेजासि लेख्यानि अघ. क्षा भी क्षु प्रवन बलेति पदानि चेत्युद्धार ।
अथ मन्त्रोद्धारः ॐ क्ली क्लिन्ने दिल नित्ये नम १ उपा हु क्षु ह्री नम २४ क्षा प्रा ॐ नम: ३ ॐ चक्रे क्षा क्षी क्षु प्रवल बल स्वाहा ४ एत्तानि मन्त्राणि चत्वारि अस्मिन् काव्ये सन्ति ।
अथ विधि पुष्टि कर्मणः सप्त दश नियमा ज्ञातव्या. फल च तेज प्रताप वृद्धि दिव्य वाचा लाभ श्चेति ज्ञेय ।
अथ बीजोत्पत्ति क्ली स्वरूप क्रोधीश बल भी सस्थ धूम्र भैरव्य ल कृत 'विद्वि दु सयुत' बीज द्रावण क्लेदन स्मृत इति ।
प्रथमस्य काम बीजस्य क्लि 'क्रोधीश' बल भी सस्थ रूद्र भैरव्य लकृत विद्विदु सयुत बीज़ चड कर्म फल स्मृत, इकारो गर्जिनी चण्डा तथा च रूद्र भैरवी त्युक्ते प्रेत्यस्य मकारस्तु कपर्दी स्यात् ‘र कार' क्ष तेजो भवेत् ।।
सयोगेन भवे द्वश्य कारी प्रो बीज उत्तम किलि २ क्रोधीशो, बल भेदी, चण्डी, बीजेण सयत फलेन काम रूपत्व मोहने वश्य कर्मणि, इत्युक्ते, आकारे नाम सी काले नाद बिन्दु समाश्रिते, पाश बीज फल दुष्ट निग्रह प्रति पादित मित्युक्ते हू व्योमास्य काल वज्राढय नादिनी बिन्दु सयुत, ह फल निधि प्रदान च क्ष' त्रैलोक्य नसन बीज काल वक्त्रान्वित पर क्षु वीज साद्धं विद्वि क फल चाकर्षण पर चेति 'ह्री' युक्त फल त्रैलोक्य ग्रसन ध्येय, पाश बीज समन्वित तेज प्रताप सिद्धयर्थ पाश, प्रणव , सयुत सप्त तेजा सिर बीज सप्तक वा थ वेदक तस्या पि सप्त क वोध्य श अ व र त क ग इति क्षा क्षी सू आ काल रात्रि. ई धूम्र भैरवी 'ऊ' विदारी च सयोगात् फलानि च 'तेज' प्रतापादिव्य वाचा लाभश्चेति बोध्य ।