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________________ इस प्रकार हम कह सकते है कि परमपूज्य श्री १०८ गणधराचार्य कु थु सागरजी महाराज आज के युग मे आर्ष परम्परा के दृढ स्तम्भ है और गुरुवों के द्वारा प्रदत्त पदो से ही आप गणधराचार्य पद से सुशोभित है। समता, वात्सल्यता निर्ग्रन्थता आपके विशेष गुण है, जो भी आपके एक बार दर्शन प्राप्त कर लेता है वह अपने आपको धन्य मानता है और उसका मन प्रफुल्लित होकर कह उठता है महाराज तुम्हारे दर्शन को दुनियां दौड़ी आती है। कुछ बात अनोखी है तुममे जो ओरो मे नहीं पाती है। गणधराचार्य महाराज के भाव स्व-कल्याण के साथ-२ हमेशा पर कल्याण के भी बने । है । जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण आपका विशाल संघ है। आपने अनेको दीक्षाये दी है। वर्तमान में आपके सघ मे लगभग ३० पिच्छो है, जिनमे पाप ही के द्वारा दीक्षित मुनियो की संख्या १७ है जो भारत वर्ष मे विद्यमान किसी भी श्रमण सघ मे नही है, हमारे लिये यह वहत ही गौरव व प्रसन्नता की बात है कि गणधर चार्य महाराज का विशाल सघ हमारे मध्य विद्यमान है । सघस्थ सभी साघु ज्ञानी ध्यानी एव तपस्वी है। सदव अध्ययन चितन मे लीन रहते है। परमपूज्य श्री १०८ प्राचार्य धर्म सागरजी महाराज के आदेशानुसार आपने भारतवर्ष मे नगर-नगर और गाँव-गाँव मे विशाल संघ के साथ विहार कर सोनगढ़ साहित्य का बहिष्कार करने व जिन मन्दिरो से उस साहित्य को हटाने के लिए पूर-जोर अभियान चला रक्खा है जिसके फलस्वरूप आपने अनेको उपसर्ग सहन किये । प्राण घातक हमले आप पर हुये। लेकिन धर्म की रक्षा के लिये आपको अपने प्राण। की भी चिन्ता नहीं है । अभी हाल ही मे आपके द्वारा लिखित पुस्तक काजी पोपडम् शतक (असत्य कहान स्वामी) प्रकाशित हुई है जिसमे गणधराचार्य महाराज ने बहुत ही साहस के साथ निडर होकर के कानजी स्वामी तथा उनके अनुयायियो ने किस प्रकार से असत्य कथनो के द्वारा लोगो को गुमराह कर रहे है उसका वर्णन किया है । सरल मुबोध प्रवाह मयी भाषा मे लिखा गया एक-२ सवैया गाथा को निरूपित करता है-महाराज की यह कृति डके की चोट कहती है। कहा कहान वाणी देखो, कहा बीर वाणी है। दोनो मे अन्तर जैसे, कौआ और कोयल मे ।। गृहस्थ पुल्लिग धारी, शुद्धोपयोगी न होय । फिर चम्पा बहिन को शुद्ध कैसे होय ? वस्त्रधारी व्यक्ति को सदगुरुदेव कहे। निर्ग्रन्थ साधुवो को द्रव्य लिगी कहत है। धर्म ग्रास्था तर्क वितर्क ज्ञान समाधान और, न्याय की सतरगी प्राभा से दमकती पुस्तिका काजी बाबा के टोल की पूरी पोल खोलने में समर्थ है। ___ इस प्रकार धर्म रक्षा हेतु परम पूज्य श्री १०८ गणधराचार्य कु थु सागरजी महाराज ने इस दिशा में जो कार्य किया है उस पर हम सभी को गौरव है। गणधराचार्य महाराज सदैव ही निडर होकर पूर्वाचार्यों द्वारा लिखित ग्रथो का ही स्वाध्याय करने की प्रेरणा भव्य जीवो को देते रहते है प्राचीन ग्रथ जो अप्रकाशित है तथा
SR No.090264
Book TitleLaghu Vidyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLallulal Jain Godha
PublisherKunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages693
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size28 MB
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