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________________ पुरुष देवता से सम्बन्धित मन्त्रो को १ सौर मन्त्र कहा जाता है। २ स्त्री देवता से सबधित मन्त्र सौम्य मत्र या विधा मन्त्र कहलाते है। पुरुष मन्त्र के अन्त मे "हु फट" रहता है । स्त्रो मन्त्रो के अन्त मे 'ठः ठ" होता है। नम" जिनके अन्त मे आता है वे नपुसक मन्त्र कहलाते है । कतिपय विद्वान वपट और फट से समाप्त मन्त्रो को पुरुष मत्र वोषट् और स्वाहा को स्त्री मत्र तथा हूँ नम से समाप्त मत्रो को नपु सक मानते है। १ पिडमन्त्र, २ कर्तरोमन्त्र, ३ बीज मन्त्र इस प्रकार भी विविक्षा है। एक अक्षर का मन्त्र पिडमन्त्र कहलाता है। दो अक्षरो का मन्त्र कत्तरीमन्त्र । तीन अक्षरो से नव अक्षरो तक के मन्त्र बीजाक्षरी मन्त्र कहलाते है। जिनमे अधिक वर्ण, अक्षर, मात्रा, पद, वाक्य हो, माला मत्र कहलाते है । मत्र ध्वनि-नाद उच्चारण, लय, स्वर, ताल, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से शक्ति सम्पन्न होते है। वशीकरण एक मत्र है- तज दे वचन कठोर । "हित मनोहारी वचन च दुर्लभः ।" कोयल की मीठी कुहुक वशीकरण कोए की कर्कश ध्वनि उच्चाटन करतो है । तानसेन, बैजू बावरा के स्वर सगीत से दीपक जलते, फूल खिलते, मेघ बरसते, हिरण जगल से आते, नाग-सर्प बीन पर झूमते, हमने देखेसने-पढे ही है। भक्तामर, विपापहार, कल्याण मन्दिर स्तोत्रो के सगीत-मय-भावपुर्ण भजनो के चमत्कार से, ताले टूटते, बेडिया कटती, कुष्ठ रोग दूर होता एव सर्प, बिच्छु के विष नाश होते ही है । भूत-प्रेत भागते और ज्वर, दृष्टि-दोष नजरा लगना (झाडने से आराम) सुप्रसिद्ध ही है । चन्द्रशेखर व्यकट रमण ने भारतीय वाद्य (तबला बजाना) बारह वर्ष तक सीखा, साधा, वे एक थाप से मोतियो को ॐ ऐ का आकार प्रदान कर देते थे। जल-तरग की स्वर लहरिया, एव सगीत के ध्वनि प्रयोग से अनेक पागलो, मनोरोगियो को शयन निद्रा अवस्था मे ही रोग मुक्त कर चुके है। आज के वज्ञानिक ध्वनि-तरगो से ऑप्रेशन एव मच्छित कर व्याधि रहित शरीर कर देते है। यह मत्र विद्या का प्रत्यक्ष विज्ञान द्वारा सहज सुलभ चमत्कार मत्र शक्ति को स्पष्ट करता है। शास्त्रो मे मत्रो की संख्या सात करोड है। वैदिक विद्वानो के अनुसार कूछ मत्र शिव-शक्ति द्वारा कीलित है बौद्धो मे असख्य मत्र-तत्र है। जेनो मे इसकी विशाल परम्परा है णमोकार महामत्र तो ग्यारह, अगो चौदह पूर्वो का सारतत्व और अनादि मत्र है ही। प्रतिष्ठा कल्प, मत्र कल्प, सूरि कल्प, श्री कल्प, श्री विद्या कल्प, चक्रेश्वरी कल्प, ज्वाला मालीनी कल्प, पद्मावती कल्प, वर्द्धमान विद्या कल्प, रोगपहार कल्प अनेक प्रकार के मत्र-तत्र-यत्र, ग्रथ जैन शास्त्र भण्डारो में प्राप्त है। मत्र की प्रात्मा है-ध्वन्यात्मकता एव मन शुद्धि । बुद्धि-शान्ति, आत्म-शद्धि एव पवित्र भावना, इसी के सहारे मत्र शक्ति ध्वनि ऊर्जा, तरागभित होकर अग्नि से अम्बर तक व्याप्त होकर अपना कार्य सिद्ध करती है एव साधक को सिद्धिया, ऋद्धिया एव सफलताये देती है। यत्र -धात, तार, ताडपत्र, कागज, वस्त्र पर टकित चित्रित लिखित रेखाकार, स्वरूप, अको से निमित्त, चित्रित होते है । ये यत्र शुद्ध अष्टगध केशर, कपूर, धूप, आदि से विशेष विपुप्प, गूरुपुष्प, सर्वार्थसिद्धि, अमृतसिद्धि दशहरा, दिवाली, होलो, ग्रहरण, पर्वो एव विशेष मुहूर्तो मे हवन, पूजन, मत्रो द्वारा शक्तिशाली रूप मे बनाये जाते है। यत्र जैसे नभ मे, जल में,
SR No.090264
Book TitleLaghu Vidyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLallulal Jain Godha
PublisherKunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages693
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size28 MB
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