SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शाति कार्य सिद्धि इत्यादि मन्त्रो का उल्लेख किया गया है। जिन विद्वानो ने विरोध किया उनके लिये हम कहेगे, कि ये आगम विरुद्व "अग" पूर्व पर उन्हें श्रद्धान नहीं है। ऐसे विद्वानो को हम क्या कहे, इनके लिए ऐसे कोई शब्द नही जिनको कि मै उनके बारे मे लिख सकू । फिर भी जिन भगवान की वाणी है, कि सम्पूर्ण तत्वों का ज्ञान होने पर भी अगर एक शब्द पर भी श्रद्धान न हो तो वह मिथ्यादृष्टि माना जाता है। यह मत्र शास्त्र आगम साहित्य मे प्रमाण बतलाता है, यह विद्यानुवाद दशवा पूर्व है। इसमे ही सब मत्र, तत्र यत्र उच्चाटन इत्यादि विषय पर दिया गया है। जिसके ज्ञाता केवली अथवा श्रु त केवलो ही होते है। वैसे तो विद्यानुवाद पूर्ण रूप से अपर्याप्त है। फिर भी ७०० महाविद्याप्रो १२०० लघुविद्यानो का वर्णन मिलता है। इन महा ग्रथो का लोप होने के बाद कही-कही प्रमाण मिलते है। राजस्थान के शास्त्र भण्डार एव जयपुर, पारा, अजमेर, नागौर आदि अनेक स्थानो पर मन्त्र शास्त्र उपलब्ध है। गणधराचार्य कुन्थुसागर जी महाराज की भावना थी कि जहा तहा यह मत्र शास्त्र रवखे हुए है उन्हे एक जगह सकलन करके प्रकाशन करवाया जावे। परन्तु जैन विद्वानो ने जो कि अपने ही धर्म से द्वेष के कारण इस महान मत्र शास्त्र का अपमान किया। निन्दा ही नही बल्कि अनेक पत्र पत्रिकामो मे इसके नाम से आलोचनाये की । परन्तु सूर्यो का यह पता नहो कि महा पराक्रमी रावण को भी ११०० विद्याये सिद्ध थी। रामचन्द्रजी सेठ जिनदत्त हनुमान एव भूतबली पुष्पदन्त आदि महान पुरुषो के प्रमाण मिलते है। क्या ये मूर्ख थे, या आगम नही जानते थे। सो उन्होने विरोध क्यो नही किया । अभी साक्षात् दिगम्बर गुरुपो ने भी इसे आगम विरुद्ध नही बताया। जैसे नाव होती है उसमे बैठकर इस पार से उस पार जाने के लिए होती है । अगर कोई मूर्ख उसमे छेड-छाड करे तो क्या होगा। उसे आप जानते है । उसी प्रकार यह मत्र शास्त्र भी इसीलिए लिखा गया है और इसमे अब और भी अनेक १२८ पृष्ठो के अन्दर इसी लघुविद्यानुवाद मे और भी प्राचीन मत्र शास्त्रो द्वारा शास्त्रो से प्राप्त हए उन मत्रो को जोडा गया है। इन मत्रो को देख करके आपको बहुत ही आश्चर्य होगा साथ ही चित्रो के साथ दिया गया है । जीसको देखते ही आपके रोम-रोम खडे हो जावेगे कि जब-जब धर्म पर सकट पावे और स्वय पर कोई आपत्ति आवे उसके निवारण करने के लिए मत्र शास्त्र की रचना की है। मै तो कहूगा कि पूज्य गणवराचार्य श्री का समाज पर बहुत ही उपकार है । मैं पूज्य गणधराचार्य श्री के चरणो मे यही प्रार्थना करता हूं कि आप जैन समाज के लिए ऐसे ही उपयोगी शास्त्रो का प्रकाशन कराते रहे, और मुझे भी सेवा का मौका मिलता रहे यही प्रार्थना करता है। ___ ग्रथ प्रकाशन कार्यो मे ग्रथमाला के प्रकाशन सयोजक श्री शाति कुमारजी गगवाल एवं उनके सुपुत्र श्री प्रदीपकुमार जी गगवाल ने बहुत ही कठिन परिश्रम किया है । इनके अकथ परिश्रम से ही यह ग्रथमाला सुचारू रूप से कार्य कर रही है । मेरा इनको बहुत-बहुत आशीर्वाद है कि भविष्य मे भी वो इसी प्रकार कार्य करते रहे। क्षुल्लक चैत्यसागर
SR No.090264
Book TitleLaghu Vidyanuwada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLallulal Jain Godha
PublisherKunthu Vijay Granthamala Samiti Jaipur
Publication Year
Total Pages693
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy