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________________ अन्योन्य-मत्सराः केचिन्मुनयो: मुनिदूषकाः । स्वामि दत्तार्थं भुंजाना हव स्व-स्वामि दूषकाः ॥31॥ कंचिद्विरागिणो भूत्वा बिबानीवाति रागिणः I कुलालामंत्र निक्षिप्त शिखि वत्कामविह्वलाः ॥ 32 || लब्ध्वा राज्यमवंतीय भूपा बंधून्बलानि च । धृत्वा दीक्षां धनं लब्ध्या केचिद्वान्धव पोपकाः ॥33॥ स्वामी द्रोहानिजं देशं मुक्स्वारि-विषयं गताः । स्वामीद्रोहधरा केचिद शक्ता निरयं गताः ॥34॥ निन्दन्ति निन्दयत्येव सद्गोत्रान्साधु पुंगवान् । जिनरूप धराः केचित् वायुभूत्यादयो तथा B मायया केचिदेवात्र देह संस्कार कारकाः । आत्मघातक दुर्भाषा वैदिक ब्राह्मणा इव ॥136 1 व्यवहृत्यान्यदेशेषु नंष्ट्या स्वैरार्जितं धनं । ये नरास्ते यथा केचित्स्वकाय - क्लेश तत्पराः ॥ 37 ॥ केचिदुपति क्षेत्रे नित्थाचित कृषिक्रियाः । अलब्ध धान्या वर्तते यथास्युर्निष्फल क्रिया BB | सर्वारम्भ परिभ्रष्टाः केचित्स्वोदरपूर्तये । केचित्स्वर्ग सुखायैव केचिदैहिक भूतये | 139 दत्तेस स्याद्यथा दीक्षां यो मुनिबहिरात्मनः । काष्टागार स्थापित श्री जीवंधरापिता यथा ॥40॥ दा. शा. / पा. थे. अ. अर्थात् कोई-कोई देह के क्लेश को सहन करने वाले होते हैं और कोई दूसरों I के उत्कर्ष को सहन करने वाले नहीं होते हैं । वे आगे के जन्म में राजा होकर प्रजा व धर्म का नाश करते हैं ॥२९॥ कोई कोई काय से तप धारण कर वचन और मन से उसका नाश करते हैं । वे उसी के समान पूर्ख हैं, जो खेत में व्यर्थ के घासों को काटना छोड़कर सस्यों-धान्नों को हो काटकर नाश करता है ||३० ॥ कोई-कोई मुनि एक दुसरे के प्रति मत्सर युक्त होकर परस्पर एक दुसरे की निन्दा किया करते हैं जिस प्रकार कि स्वामी के दिये हुए धन को खाते हुए भी नीच सेवक अपने स्वामी की निन्दा करते हैं ॥३१ ॥ (85)
SR No.090258
Book TitleKriyasara
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorSurdev Sagar
PublisherSandip Shah Jaipur
Publication Year1997
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size2 MB
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