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________________ अन्वयार्थ-अनन्तर (सग-सग) अपने-अपने (गणेणजुत्ता) गण से संयुक्त (आयरिय) आचार्य को (अह-कमेण) यथाक्रम से (वंदित्ता) वन्दना करके (सहुवा) प्रशंसनीय (सुदेश) उत्तम देश में (सूरि सुरेण) पराक्रमी आचार्य (परिकलिय) संघ सहित (जति) विहार करते हैं ।७४ ॥ अर्थ-अनन्तर यथाक्रम से अपने-अपने गण-संघ, कुल आदि से संयुक्त आचार्य की यथाक्रम से बन्दना करके सूरि सूर आचार्य भगवन प्रशंसनीय सुदेश में विहार करते हैं ॥१४॥ विशेष-आचार्य पद प्रतिष्ठापना की सम्पूर्ण योग्य विस्तृत क्रिया वैभव के साथ हो जाने पर द्वितीय अवस्था में संघ के सम्पूर्ण त्यागी गण, श्रावकादि जन क्रमपूर्वक अपने समूह सहित नवीन प्रतिष्ठापित सूरिसूर-धीर-वीर आचार्य की विधिवत वन्दना करते हैं तत्पश्चात् यह सूरि प्रवर सुदेश/उत्सम देश अर्थात् जिनागम में जहां का राजा धर्म से संयुक्त होता हैं, जहां की प्रजा धर्म को प्राण के समान मानती हो, जहां धर्म के आयतन का निर्माण, सुरक्षा और वृद्धि होती हो, जहां की प्रजा न्यायाति के अनुकूल अपनी सम्पूर्ण प्रवृत्ति करती हो, जहा दीक्षा धारण करने वाले सुलभ हो जहां का जनमानस जिनोपदेश श्रवण ग्रहण का इच्छुक हो ऐसे क्षेत्र, ग्राम, नगर, शहर, देश आदि को आचार्य श्री ने उत्सम देश माना है। आचार्य ऐसे सुदेश में धर्माचरण, धर्मवृद्धि, धर्म संरक्षण आदि के लिए विहार! विचरण करता है। अब प्रकारान्तर से यति पद प्रतिष्ठापन के पश्चात् की क्रिया दर्शाते हैं। प्रथम तो मुनि दीक्षा क्रिया होने के अनन्तर द्वितीय अपने-अपने गण से युक्त आचार्य की भक्ति पूर्वक वन्दना करके "स्थित्वा..गुरुवाम पावें श्रुत्वा प्रतिक्रमणमीऽति" तात्पर्यार्थ गुरु के बायें हाथ की तरफ बैठकर संयम सम्बन्धी प्रशंसनीय उत्तमोपदेशना को प्राप्त होता है । यथाः आदाय तं पि लिंगं, गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता। सोच्चा सवद किरियं, उवट्ठदो होदिसो समणो २०७॥प्र.सा.च.अ. अर्थात् प्रथम ही परम गुरु आरहंत भट्टारक और दीक्षाचार्य द्वारा भाव एवं द्रव्य इस प्रकार दोनों लिंगों को ग्रहण करके मूलगुरु (अरहंत) एवं उत्तर गुरु (दीक्षाचार्य) को भाष्य-भावक भाष से परस्पर मिलने के कारण जिसमें स्त्र-पर घेद समाप्त हो चुका है ऐसी नमस्कार -वंदना क्रिया के द्वारा सम्मानित करके भावस्तुति पय तथा भाव वन्दना मय होता है। पश्चात् सर्व सावध योग के प्रत्याख्यान स्वरुप एक महाप्रत को सुनने रूप श्रुतज्ञान के द्वारा स्व समय में परिणामित होते हुए आत्मा को जानता हुआ सामायिक WITHRILLIA 76 VITHILITI ES
SR No.090258
Book TitleKriyasara
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorSurdev Sagar
PublisherSandip Shah Jaipur
Publication Year1997
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size2 MB
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