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अर्थात् समस्त राजाओं से पूजित पादपा वाले मुनिवर भद्रबाहु स्वापी के पट्ट कमल का उद्योत करने में सूर्य के समान श्री गुपितगुम मुनि पुंगव आप लोगों को शुभ संगति दें ॥१॥
नन्दीसंघ-बलात्कार -सरस्वती ग को प्राकृत परी के अनुसार सा अहलि के नाम से भाष्य है । यथाः
पंचसये, पणसढे अंतिम-जिण-समय-जादेसु । उप्पण्णा पंच जणा इयंगधारी मुणेयव्वा ॥१५ ।। अहिवल्लि माधणंदि य धरसेणं पुष्फयंत भूदबली । उडवीसं इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो ॥१६॥
अर्थात् श्रीवीर निर्माण के ५६५ मर्ष पश्चात् एक अंग के धारी पांच पुनि हुन् । २८ वर्षों बाद तक अहि बलि (अर्हगली) आचार्य, २१ वर्षों तक माधन्दि, १९ वर्षां तक धरसेनाचार्य, ३० वर्षों तक पुष्पदंत आचार्य तथा २० वर्षों तक भूतयली आचार्य हुए हैं ।
नयसेनानायं ने धामृत के प्रारम्भ पद्य में गुरु-परम्परा के उल्लेख में अर्हदलि के नाम से स्मरण किया है । इस प्रकार अष्टांग ज्ञान के धारक आचार्य भद्रबाहु के शिष्य त्रयनामधारी आचार्य गुप्तिगुप्त हैं अत: प्रस्तुत ग्रन्थ में गुप्तिगुप्त पति ने ज्येष्ठ आचार्य भद्रबाहु को नमस्कार करके संयम प्रतिष्ठापना हेतु प्रश्न किया । यथा :
सिरि भद्दबाहुसामि णमसित्ता गुत्तिगुप्त मुणिणाहिं । परिपुच्छिचयं पसत्थं अटुं पइट्ठावणं जइणो ॥३॥
इन्हीं आचार्य श्रेष्ठ द्वारा अतुर्विध (नन्दी, वृषभ, सिंह तथा देव) संघ की स्थापना की गयी ।
जैनेन्द्रवणी के जैनेन्द्रसिद्धान्त में अर्हद्वलि आचार्य द्वारा अपरातित संघ, गुणधर संघ, गुत संघ, चन्द्रसंघ, नन्दिसंघ, पुन्नाट संघ, भद्रसंघ, योर संघ, सिंह संघ तथा सेन संघ आदि की प्रतिष्ठापना वीर निर्वाण संवत् ५९३ में हुई ऐसा उल्लेख है ।
आचार्य अर्हदलि पांच वर्ष के अन्त में १०० योजन में बसने वाले सभी मुनियों को एकत्रित करके युग प्रतिक्रमण किया करते थे । एक बार 'युग प्रतिक्रमण के समय आगत सर्व मुनिगणों से पूछा कि क्या सभी मुनि आ गये ? तब उन्होंने उत्तर दिया- हाँ भगवन् ! हम सभी अपने- अपने संघ सहित आ गये । यह श्रषण कर आचार्य ने विचार किया कि अब जैन धर्म गण पक्षपात के सहारे ठहर सकेगा । उदासीन भाव से नहीं । तब उन्होंने अनेक संघों की स्थापना की जिनका नाम मात्र उपरोक्त उल्लिखित किया है। PATRI
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