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अर्थ-इसके पश्चात् उपर्युक्त यंत्र की पूजा करके तथा दिष्य सिंहपीठ/सिंहासन की तीन प्रदक्षिणा देकर एवं पूजा करके हाथ में कुम्भ लेकर इन्द्र अपने गण को पुछ कर आचार्य को उस पीन पर बैठावे करें ।।६८॥
तत्तो पुबगयाणं, जईण णामग्गहं गुई कुणदि। इंदो सिद्धंतादिय, सत्थं अग्गे समुद्धरदि॥६९ ॥
अन्वयार्थ-(तत्तो) उसके बाद वह (इंदो) इन्द्र ( पुख्यगयाणं) पूर्वगत (जईणं) थतियों के (णामग्गह) नामाग्रह पूर्वक (गुई कुणादि) निर्दोष उच्चारण करे तथा (सिझतादिय)सिद्धान्त आदि (सत्थं) शास्त्रों को (अग्गे) आगे (समुद्धरदि) भली प्रकार स्थापित करें ॥१९॥
__अर्थ-इसके पश्चात् वह इन्द्र आध पूवंगत प्राचीन यतियों के नामाग्रह: पूर्षाचार्यों की पट्टायलि का उच्चारण करके स्तुति पूर्वक पढ़े और इन्द्र प्रतिष्ठा, सिद्धान्त आदि शास्त्रों को उद्धार-उच्च स्थान श्रुत पीत पर स्थापना करें ।।६९ ॥
तो बंदिऊण संघो वित्थर किरियाए चारु भावेण। आघोसदि एस गुरु, जिणोव्व हम्माण साीय ।।७० 11
अन्वयार्थ-(तो) उसके बाद (चार भावेण) सुन्दर श्रेष्ट पुज्य भावों से (वित्थर किरियाए)सभी विस्तार क्रिया के हो जाने पर (संघो) श्रुत व संघ की (वंदिऊण) वन्दना करके (संघो) संघ (आघोसदि) घोषणा करता है कि (एस गुरु) यह होने वाला गुरु (जिगोव्य) जिनेन्द्र की तरह (हम्माण) हमारे ( सामीय) स्यामी हैं 100
अर्थ-उसके बाद श्रेष्ठ-पूण्यपने के भावों के द्वारा विस्तार क्रिया हो जाने पर अत और सूरि की वन्दना करके संघ घोषणा करता है कि ये गुरु राग-द्वेए आदि अन्तरंग शत्रुओं को जीतने वाले जिन के समान हमारे स्वामी हैं ।।५० ॥
विशेषार्थ-यह आचार्य प्रवर ने संयम प्रतिष्ठान क्रिया करने के पश्चात् संघ की प्रतिक्रिया का वर्णन करते हुए कहा है कि उत्कृष्ट भावों से सम्पूर्ण सविस्तार क्रिया के हो जाने पर द्वादशांग आचारांग की वन्दना करके तथा आचार्य की वन्दना करके संघ -चतुर्विध संघ घोषणा करता है कि जिस प्रकार जिनेन्द्र राग द्वेष मोह आदि विकार भावों से रहित होते हैं तथा अन्तरंग व बहिरंग शत्रुओं को जीतने वाले होते हैं सरल सहज स्वभावो परम स्व समय में स्थित होते हैं। ठीक उसी प्रकार ये गुरु आचार्य भी जिन की तरह हमारे स्वामी (नायक) हैं।७० ।।
जं कारदि एसगुरु धमत्थं तं ण जो दु मण्णेदि।
सो सवणो अजाओ, सावयवो संघ बाहिरओ७१।। एमपORITTAL 73 VIEW