SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुनरुज्जीवित किया । इनके पूर्व भी कई संघों की स्थापना कुन्दकुन्दादि पूर्वाचार्यो के I द्वारा भ्रमं संयम रक्षार्थ की गई। अतः आचार्य पद की स्थापना अनिवार्य है। अन्यथा आचार्य प्रतिष्ठापन के अभाव से समूचा जिनमार्ग ही टूषित हो जाएगा। अनेक उन्मार्ग गामी संघ हो आएंगे। सन्तगण चारित्राचारादि से भ्रष्ट हो जाएंगे ॥१७॥ विण्णाण बहुलबुद्धि जिणमग्ग पहाणी विगमलोहो । आसापास विमुक्को, विमुक्क पडिकूल बुद्धी ॥ १८ ॥ देस-कुल- जाइ सुद्वो, आचार सुदत्थ-करण-संचरणो । जहाविह संघ समुद्धर, पवित्ति परिचिंतगो सुद्धो ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ - बहुल बुद्धी विज्ञान बहुल बुद्धि (जिणमग्ग पहाणो) जिन/जिनेन्द्र प्ररूपित मार्ग में प्रधान (विगम लोहा) विगत लोभ निर्लोभ (आसा पास विमुक्तो) तृष्ण कुत्सित / निकृष्टता से रहित (पडिकूल बुद्धि विक्को) आगम व संघ के प्रतिकूल बुद्धि से विमुक्त/अनुकूल बुद्धिवान ॥ १८ ॥ (देस-कुल- जाइ सुद्धो) देश, कुल जाति से शुद्ध ( आचार सुदत्थ करण संचरणों) आचार श्रुत के अर्थ का सम्यग् आचरण करने वाला सदाचारी, (जहाविह संघ ) यथा विधि/योग्य रीति से संघ का ( समुद्धर पवित्ति) समानता पूर्वक भलीभांति उद्धार करने वाला ( परिचिंतगो शुद्ध ) परिचिंतक चिंता करने वाला, शुद्ध (आयरियो) आचार्य होता है ॥ १९ ॥ अर्थ - जिनमार्ग में प्रधान, प्रतिकूल - मिथ्याबुद्धि से रहित, आशापास से विमुक्त, लोभ रहित विचक्षण विशेष ज्ञान, रूप संघानुकूल प्रवर्तक प्रचुर बुद्धि, देश- कुल जाति से शुद्ध आचार एवं श्रुत के अर्थ का विधिपूर्वक विचरण करने वाला सदाचारी यथा विधि संघ का उद्धार का परिचिन्तक आचार्यत्व लिए होती है। उसको वह प्रवृत्ति चिंता रहित तथा शुद्ध है ॥१८-१९ ॥ विशेष- यहां आचार्य पद का उद्धार वृद्धि करने के सम्बन्ध में निरूपण करते हुए कहते हैं कि जिसका देश, कुल एवं जाति विशुद्ध हैं, जिनेन्द्र देव के द्वारा प्रतिपादित मार्ग के प्रतिकूल / मिथ्याबुद्धि को छोड़कर अनुकूल दानादि प्रवृत्ति करने वाला हैं, जिनमार्ग के पक्ष में समस्त आचरण करने वाला तथा आगम का वास्तविक अर्थ को करने वाला है, आशारूपी ग्रन्थी से विमुक्त अर्थात् रहित, जिनागम का नय आदि का विशेषज्ञानरूपी प्रचुर बुद्धि को धारण करने वाला, अपने विशेष जिनागम विहित {39 17h
SR No.090258
Book TitleKriyasara
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorSurdev Sagar
PublisherSandip Shah Jaipur
Publication Year1997
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy