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के लिए आत्मा को युक्त करता है वह वीर्याचार जानना ।
समस्त इतर आवार में प्रवृत्ति कराने वालो स्वशक्ति के अगोपन स्वरूप वीर्याचार
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तात्पर्य उपयुक्त पंचाचारों को छोड़ कर स्वेच्छाचार प्रवृत्ति करने वाला यति अवन्दनीय होता है | १५ ||
संघ बाह्य स्वेच्छाचारी :
जो जारिसं (च) * कप्पदि, मुणिवर गण बाहिरं महामोहो । सो तारिसेण किरिया, कमेण भट्ठो मुणी होई ॥१६ ॥
अन्वयार्थ - (जो मारिसं ) जो जैसा (कम्पदि) कल्पना करता है ( सो तारिखेण ) वह वैसी मनोकल्पित (किरिया कमेण ) क्रिया कर्म को करने से ( महामोहो) महामोही ( मुणिवर गण बाहिरं) मुनिश्रेष्ठ / संघ से बाहिर बाह्य (भट्टो मुणी होई) भ्रष्ट मुनि होता हैं ॥१६ ॥
अर्थ - जी जिस तरह की कल्पना करता है वह उस तरह की मनोकल्पित क्रिया से मुनिवरों के समूह से बाहर / बाह्य है महामोड़ी है तथा भ्रष्ट मुनि है ।। १६ ।। विशेष - जो यति महाशक्ति शाली मोह से पीड़ित है वह अपने निज इच्छा प्रमाण कर्मों को करने के कारण से मुनिपद से भ्रष्ट है और मुनि संघ / समूह से बहिर्भूत है । क्योंकि
राजानुग्रहतो भृत्यो जनान्यक्कृत्य् नश्यति ।
यथा जड़ात्मा शिष्योऽपि गुर्वनुग्रह मात्रतः ॥ २३ ॥ पात्रापात्र भेदाधिकार, दा. शा.
अर्थात् राजा के अनुग्रह को प्राप्त करने वाला सेवक अभिमानी होकर लोगों को पीड़ा देने से जिस प्रकार अपना नाश करता उसी प्रकार अज्ञानी जड़ आत्मा शिष्य भी गुरु के अनुग्रह से मदोन्मत्त होकर अपने आत्मा का पतन कर लेता है। तात्पर्यवह अपने पद से भ्रष्ट हो जाता है। कहा भी है
निमज्जतीव पंकांध पतंतीच नगाग्रतः ।
शुद्ध दुग्बोधवृत्तेभ्यो वृथा भ्रश्यंति मोहिता ॥ १५३ ॥ च.वि.दा.नि.दा.शा.
अर्थात् जिस प्रकार कोई कीचड़ के कुए में फंस जाते हों एवं पर्वत के ऊपर से गिरते हों उसी प्रकार संसार के मोह में फंसे हुए मनुष्य व्यर्थ ही शुद्ध सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं।
गाथा छंद में एक मात्रा का अभाव होने से 'च' का प्रयोग किया गया है ।
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