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________________ इस प्रकार जो दीक्षाय विधि से रहित हो, स्वयं दौक्षित हो क्योंकि आचार्य । सिंहनन्दी कहते हैं कि: ये स्वयं व्रतमादत्ते स्वयं चापि विमुञ्चति । तदव्रतं निष्फलं ज्ञेयं साक्ष्या भावात् कुतः फलम्॥ गुरु प्रद्दिष्ट नियमं सर्व कार्याणि साधयेत् ।। व. ति. नि. अर्थात् जो स्वयं प्रत ग्रहण करता है वह स्वयं ही व्रतों को भी छोड़ देता है । उसके लिए किए गये सम्पूर्ण व्रत निष्फल हो जाते हैं। क्योंकि गुरु को साक्षी न होने से व्रतों का फल क्या होगा? अर्थात् कुछ भी नहीं। गुरु से यथाविधि ग्रहण किये गये व्रत ही सर्व कार्यों को सिद्ध कर सकते हैं। अत: उपरोक्त पूर्वाचार्य कथित विधि से हीन स्वर्य दीक्षित हैं तथा तृतीय लक्षण प्रमाद युक्त पडावश्मक आदि आवश्यक क्रियाओं के करने में प्रमाद करता हो, आर्तध्यान करता हो, संघ की मूल प्रवृत्ति के प्रतिकूल आचरण पचन आदि व्यवहार करता हो, वह वन्दना करने के योग्य नहीं है ॥१३॥ भ्रष्ट सेवी भ्रष्ट पसिस्थाणं सेवी पासत्थो, पंच चेल परिहीणो। विवरीयकृपयादी, अवंदणिजो जई होई ॥१४॥ अन्वयार्थ-(पसिवाणं सेवी पासस्थो) पार्श्वस्थों की सेवा करने वाला पार्श्वस्थ होता है (विपरीयट्ठपवादी) आगम के अर्थ को अन्यथा विपरीत प्रतिपादन करता हो (पंच चेल परिहीओ) पंच प्रकार के वस्त्र से रहित होता है, तो भी (जइ) वह मुनि (अवंदणिज्जो होई) अवन्दनीय होता है ॥१४॥ अर्थ-पार्श्वस्थों की सेवा करने वाला, आगम के अर्थ का अन्यथा प्रतिपादित करने वाला, पांच प्रकार के वस्त्र से रहित शिथिलाचारी साधु, विपरीत प्रवृत्ति करने वाला एवं अपवादो यति अवन्दनीय होता है ॥१४॥ विशेष-यहां अवन्दनीय साधुओं का वर्णन करते हुए सूरि प्रवर कहते हैं कि जो पायस्थ सेवी हो क्योंकि पूर्वाचायं का मत है कि तत्यावस्थावसन्नैक कुशील मृगचारिषु॥१०५/१०॥ सि. सा. अर्थात् पायस्थ वसतिका में आसक्त रहता है, उपकरणों से उपजीविका करता है और मुनियों के पास रहता है। IIIIIIIIIIIIMa( 32 IVITA
SR No.090258
Book TitleKriyasara
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorSurdev Sagar
PublisherSandip Shah Jaipur
Publication Year1997
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Religion, & Ritual
File Size2 MB
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