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प्रस्तावना
प्रस्तावनान्तर्गत विषय (१) ग्रन्थ नाम एवं सार्थकता (२) ग्रन्थकार (३) पूर्व-परम्परा (४) उत्तरपरम्परा (५) आधुनिक-परम्परा (६) क्रियासार की विषय वस्तु, (७) क्रियासार में वर्णित विषय (८) क्रियासार का उद्देश्य (५) क्रियासार की आवश्यकता (१०) ग्रन्थ रचना काल एवं (११) उपसंहार ।
ग्रन्थ नाम एवं सार्थकता : ''क्रियासार ग्रन्थ'' क्रिया एवं सार इन दो शब्दों के पेल से बना है ।"क्रियाशब्द" अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है । सामान्यतः कार्य सम्पादन करने का नाम क्रिया है । प्राकृत कोश के अनुसार ''क्रिया" शब्द का तात्पर्य शास्त्रोक्त अनुष्ठान एवं धर्मानुष्ठान इत्यादि । ''सार" शब्द का तात्पर्य परमार्थ, प्रकर्ष, आवश्यक एवं सर्वोत्तम इत्यादि पाना है । जिमका वास्तविक अर्थ- परमार्थ हेतु जिनागम के अनुसार आवश्यक सर्वोत्तम धर्मानुष्ठान है । यथा
"पसत्थं उवढं पइछावणं जइणो ।" अझ भी 'पुवांकद" पूर्वाचार्य कृत चतुर्विध संघ के हितार्थ इस ८० गाथा बड़ प्राचीन ग्रन्थ का संग्रह किया गया है । अत : जिनागमानुसार धर्म एवं संयम मार्ग में उत्कर्ष रूप से यति एवं सरि धर्मानुष्ठान सर्वोत्तम सुख के लिए परमावश्यक है । इसीलिए इस ग्रन्थ का सार्थक नाम 'क्रियासार' रखा गया है ।
ग्रन्थकार: इस ग्रन्थ के रचनाकार आचार्य भद्रबाहु हैं । इस ग्रन्थ के संग्रह कतां आचार्य गुप्तिगुप्त हैं, जिन्हें आचार्य भद्र याहु का परम शिष्य माना जा सकता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में "गुप्निगुप्त मुणिणाहि" आदि शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि जम्बद्रीप में नर नाभि के समान सुपेरू पर्वत जिस तरह सुशोभित होता है, उसी तरह मुनिसंघ में भी नाभि के समान मूल-केन्द्र बिन्दु स्वरूप आचार्य गुप्तिमुप्त प्रवर का भी सुस्मरण किया गया है । रचनाकार भद्रबाहु हैं और इसके संग्रहकर्ता मुनिनाथ गुप्तिगुत हैं ।
पूर्व परम्परा : पल श्रुतावतार के अनुसार श्रुतधराचार्य परम्परागत भगवान महावीर के पश्चात् गौतम, सधर्म एवं जम्बूस्वामी ने ६२ वर्ष तक धर्म प्रचार किया । इनके पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन तथा भद्रबाहु १०० वर्षों में पंच श्रुत केवली ने ज्ञानदीप को