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क्रियाकलापे
Anuvaar
शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदाय: सवृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि, प्रियहितवचो भावना चात्मतत्वे सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गाः ॥१॥
अर्थ–मेरे शास्त्रों का अभ्यास हो जिनपति को नमस्कार हो, आर्य पुरुषों की सदा संगति हो, सदाचार परायण पुरुषों के गुणों के समूह की कथा हो, पराये दोषों के कहन में मौन हो, सब के प्रिय और हित रूप वचन हो, अपने आत्मस्वरूप में भावना हो, मुझे जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हों तब तक ये सब जन्म जन्म में प्राप्त हों।
तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र ! तावद्यावनिर्वाणसम्प्राप्तिः ॥२॥
अर्थ-हे जिनेन्द्र ! जब तक मुझे निर्वाण की प्राप्ति न हो तब तक आपके चरण मेरे हृदय में रहें और मेरा हृदय आपके दोनों चरणों में लीन रहे।
अक्खरपयत्थहीणं मत्ताहीणं च जं मए भणियं । तं खमहु णाणदेवय मज्झ य दुक्खक्खयं दितु ॥३॥
अर्थ-हे ज्ञान स्वरूप देव ! अक्षर, पद और अर्थ से हीन तथा मात्रा से हीन जो मैंने कहा हो तो उसे आप क्षमा करें और मेरे दुःखों का क्षय हो ॥३॥
अनन्तर बैठकर नीचे लिखा आलोचना पाठ पढ़ें।
इच्छामि भंते ! समाधिभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । रयणत्तयसरूवपरमप्पज्झाणलक्खणसमाहिं सव्वकालं अंचेमि पुजेमि वन्दामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं ।
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