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张崇荣张孝米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米米
कषायजय-भाबमा
लोभ का फल श्रृंगाग्रं सहसाधिरोहति गिरेभूमण्डलं भ्राम्यति । दोया सिन्धुजलं तितीर्षति चिरं देशान्तरं लाइते।। भूरन्धं विशति प्रसर्पतिदिशः सर्वाश्चि वित्ताशया |
तत्किं साहसमस्ति यन्न कुरुते लोभाकुलोऽयं जनः ||२९|| * अर्थ - लोभी पुरुष लोभ के कारण सहसा पर्वत की चोटी पर चढ़ जाता है।
भूगा पर घूमता है। जोनों हासे समुद्र के जाल में तिरना चाहता है। * देश-विदेश में परिभ्रमण करता है। पृथ्वी के नीचे प्रवेश करता है। धन के
लिए सारी दिशाओं में भ्रमण करता है। कौनसा ऐसा साहस है, जिसे लोभी * व्यक्ति नहीं करता है ? अर्थात् लोभी व्यक्ति सारे साहस युक्त कार्यों को
करता है। भावार्थ - लोभी मनुष्य धनार्जन करने को इतनी प्राधानता देता है कि वह धन के लिए किसी भी तरह का पुरुषार्थ करने के लिए तत्पर रहता है। पर्वत पर चढ़ना, देश-विदेशों में परिभ्रमण करना, अपने बाहुयुगल के द्वारा
सागर में तिरना, खदान आदि में प्रवेश करना आदि साहसपूर्ण कार्य लोभी * मनुष्य करता है।
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वित्तार्थी नृप सेवया विषहते कष्टं निशा जागरं। उष्णं वाथ न मन्यते न शिशिरं तोयं न मेघागमे ।। आदेशं प्रतिपद्य तस्य विषम सानोति संप्रेक्षणी,
लोभेनानुरतेन चेतसि सदा किं किं न कुर्याज्जनः !|३०|| | अर्थ - धन का इच्छुक व्यक्ति राजा की सेवा में रात्रिकाल में ज्ञाग कर कष्ट |
सहन करता है। उष्णता, शीत. जल अथवा वर्षा का ध्यान नहीं करता है। Ite | उसका आदेश पाकर अपनी दृष्टि को ही बदल लेता है। लोभ से युक्त मनुष्य
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