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कवायजय-भावना
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मान का फल जाति, विपुला कुलं सुविपुलं रूपं जगत्सुन्दरं, बुद्धिस्तीक्षणतरा तृतं समधिकं लोकातिगं वैभवम् । विज्ञानं जनचित्रकारि सुतपश्चेतश्चमत्कारि मे,
स्वस्थाधः स्थितमित्ययं जगदिदं मानी सदा मन्यते ।११।। * अर्थ - मेरी जाति और कुल बड़ा है। मेरा रूप संसार में सब से अधिक
सुन्दर है। मेरी बुद्धि तीक्षणतर है। मैं सब से बड़ा व्रती हूँ। मुझमें आश्चर्यकारी * ज्ञान है। मैं चमत्कारी तप करता हूँ। यह सारा संसार मुझसे नीचा है। मानी
व्यक्ति सदैव ऐसा मानता है।
भावार्थ - अभिमान के भँवर में फँसा हुआ मूढ़ मनुष्य जगत में अपने को * सर्वश्रेष्ठ मानता है। अपने कुल, जाति, रूप, तप या ज्ञान की श्रेष्ठता का उसे बहुत अहंकार होता है। उसी अहंकार के मद से मत्त होकर वह सज्जनों का अपमान भी कर देता है।
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भवभयहरं शान्तं धीरं जिनं न विलोकते। न खलु सुखदं पूतं धर्म कुधी रोगे विगाहते ।। हितमपि गुरोः सत्यं वाक्यं नरो न समीहते।
कथमपि निजं मानं मानी न जातु विमुञ्चति ।।१२|| * अर्थ - मानी व्यक्ति संसार के भय का विनाश करने वाले शान्त एवं धीर
जिनेन्द्र के दर्शन नहीं करता है। कुबुद्धि रूपी रोग में फंसा हुआ मानी सुख । * देने वाले पवित्र धर्म को धारण नहीं करता है। वह गुरु के हितकारी एवं *
सत्य वचनों को भी नहीं चाहता है। मानी अपना मान किसी भी तरह नहीं |
छोड़ पाता है। * भावार्थ - इस संसार में आत्महितकारी निमित्तों में देव, शास्त्र और गुरु | ISRAEk******** ******** **
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