SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जिनसहस्रनाम टीका - ५६ अणिष्ठः = अयमेषामतिशयेन अणुः सूक्ष्म: अणिष्ठः = प्रभु अति सूक्ष्म अणु से भी छोटे हैं अत्यन्त सूक्ष्म होने से इन्द्रिय अगोचर होने से अणिष्ठ हैं। गरिष्ठगी: = गरिष्ठा जगत्पूज्या गी: भाषा यस्य स गरिष्ठगी;- जिनकी केवल दिव्यध्वनि सबसे अत्यन्त पूजनीय है। वा गौरवपूर्ण जगत्पूज्य दिव्यध्वनि के स्वामी होने से आप गरिष्ठगी कहे जाते हैं। । विश्वमुट् विश्वसृट् विश्वेट् विश्वभुग्विश्वनायकः । विश्वासीविश्वरूपात्मा विश्वजित् विजितान्तकः॥२॥ विभवो विभयो वीरो विशोको विजरोऽजरन्। विरागो विरतो संमो विविक्ता पीतमप: ।।३।। टीका - विश्वमुट् - विश्वं चातुर्गतिक संसारं मुष्णातीति विश्वमुट्= विश्व, चातुर्गतिक संसार को विश्व कहते हैं। ऐसे विश्व का जिनदेव ने हरण किया, विनाश किया है अतः वे विश्वमुद हैं। विश्व के रक्षक होने से विश्वभृत् विश्वसृट् = विश्वं सृजतीति विश्वसृट् = अभ्युदय सुख तथा निःश्रेयस्सुख को देने वाली धर्मसृष्टि की रचना आदिप्रभु ने युगारम्भ में की अतएव वे जैनधर्म सृष्टि के आद्य रचयिता माने गये हैं इसलिए उनको विश्वसृद् आदिनाथ कहते हैं । विश्व की लुप्त व्यवस्था के निरूपक होने से भी वे विश्वसृट् है। विश्वेट् = विश्वस्य त्रिभुवनस्य ईट् स्वामी स विश्वेट् = वे जिनेन्द्र विश्व के त्रिभुवन के ईट् याने स्वामी हैं। इसलिए विश्वेट् कहे जाते हैं। विश्वभुक् = विश्वं भुंनक्ति पालयतीति विश्वभुक् = विश्व को संसार से छूटने का उपाय बताकर भुनक्ति उसका पालन करते हैं अत: वे विश्वभुक् विश्वनायकः = विश्वस्य त्रैलोक्यस्य नायक: स्वामी स विश्वनायक: १. विश्वभृत् पाठ भी है।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy