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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - ४२* धर्मात्मा = उत्तम क्षमामार्दवार्जव शौच सत्य संयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । धर्म: आत्मा यस्येति स धर्मात्मा = उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य व ब्रह्मचर्य ऐसा दश प्रकार का धर्म ही जिनका आत्मा है ऐसे जिनदेव धर्मात्मा कहे जाते हैं। धर्मतीर्थकृत् = धर्मश्चारित्रं स एव तीर्थः तं करोतीति धर्मतीर्थकुत् उक्तमार्षे पुराणे श्रीजिनसेनाचार्यः = निवृत्तिर्मधुमांसादिसेवायाः पापहेतुतः। स धर्मस्तस्य लाभो यो 'धर्मलाभ' उदाहृतः ।। धर्म चारित्र रूप है और वहीं तीर्थ है. ऐसे तीर्थ को जिनहेन ने .पाः किया अत: वे धर्मतीर्थकृत् हैं। आर्षपुराण (महापुराण) में जिनसेनाचार्य ने कहा है कि पाप के कारणभूत मधु, मांस आदि की निवृत्ति को धर्म कहते हैं, उस धर्म का लाभ जिसको होता है, वह धर्मलाभ है। उस धर्मलाभ रूपी धर्मतीर्थ के कर्ता जिन कहलाते हैं वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुधः । वृषो वृषपतिर्भर्ता वृषभांकोवृषोद्भवः ॥६॥ अर्थ : वृषध्वज, वृषाधीश, वृषकेतु, वृषायुध, वृष, वृषपति, भर्ता, वृषभाङ्क, वृषोद्भव ये सब जिनदेव के नाम हैं। __ वृषध्वजः = वृषो वृषभो ध्वजः पताका यस्य स वृषध्वजः = वृष को बैल कहते हैं, उसका चिह्न जिसकी ध्वजा पर है वह जिनपति वृषभध्वज है। वृषाधीशः = वृषस्य अहिंसालक्षणधर्मस्य अधीश: स्वामी स वृषाधीशः = वृष शब्द का अर्थ धर्म होता है और अहिंसा लक्षणात्मक धर्म का जो अधीश स्वामी है उसे वृषाधीश कहते हैं। वृषकेतुः = वृषः पुण्यं केतुश्चिह्न यस्येति स वृषकेतुः तथा चोक्तमनेकार्थे केतुर्युतिपताकयोः ग्रहोपरि चिह्नेषु'। पुण्य को वृष कहते हैं, वह ध्वजा एवं चिह्न जिनका है, वे भगवान वृषकेतु कहे जाते हैं। अनेकार्थ कोश में केतु, द्युति,
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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