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* जिनसहस्रनाम टीका - ३९ * जगज्ज्योति: = जगति विश्वस्मिन् लोके अलोके च ज्योतिः चक्षुः स जगज्ज्योतिः । लोकलोचनमित्यर्थः - इस लोक में तथा अलोक में केवलदर्शन नामक लोचन जिसके है वह जिनदेव जगज्ज्योति है। अथवा जो लोगों के लिए चक्षु, लोचन समान है उसे जगज्ज्योति कहते हैं।
निरुक्तोक्तिः = निरुक्ता निश्चिता पूर्वापरविरोधरहिता उक्तिर्वचनं यस्य स निरुक्तोक्तिः = जिनकी उक्ति अर्थात् उपदेश पूर्वापर दोष रहित है ऐसे जिनदेव निरुक्तोक्ति हैं।
निरामयः = निर्गतो विनाशं गतः आमयो रोगो यस्येति स निरामयः = जिसके आमय - रोग नष्ट हो गये हैं वे निरामय हैं।
अचलस्थितिः = अचला निश्चला स्थितिः स्थानं सीमा वा यस्येति स अचलस्थितिः = निश्चल जिनका स्थान मोक्ष है व सीमा है उसे अचल स्थिति कहते हैं।
अक्षोभ्यः = न क्षोभयितुं - बास्त्रिाच्वालयितुं शक्य अक्षयः । हेताविनसति स्वराद्यः कारितस्थानामिद्विकरणो इनो लोपे रूपमिदं, अथवा अक्षण केवलज्ञानेन उभ्यते पूर्यते अक्षोभ्यः =
जिसको क्षोभित करमा, चारित्र से प्रच्युत करना शक्य नहीं है, अथवा अक्ष से केवलज्ञान से जो पूर्ण भरा है, उससे पूर्णता प्राप्त होने से जिनमें क्षोभजनन का कारण नहीं है, वे जिनदेव अग्रेसर अक्षोभ्य हैं।
कूटस्थः = कूटस्त्रैलोक्य शिखराने तिष्ठतीति कूटस्थ: अथवा अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैक स्वभावात् कूटस्थः, अथवा कूट: पर्वतराशिः तद्वत्तिष्ठतीति कूटस्थः, निर्विषयत्वेन निर्विकारत्वेन चेत्यर्थः =
___ कूट में त्रैलोक्य के शिखरान में जो स्थित हैं, वे जिननाथ कूटस्थ हैं, तथा जो अपने स्थान से च्युत नहीं होते, जिनकी बार-बार उत्पत्ति नहीं है, जो स्थिर तथा एक स्वभाव के हैं, ऐसे जिन कूटस्थ हैं, अथवा पर्वतराशि के समान स्थिर रहने वाले जिन कूटस्थ हैं, जो निर्विषय हैं, पंचेन्द्रिय के विषयों का सेवन नहीं करते हैं, तथा जो निर्विकार हैं वे ही जिनदेव कूटस्थ हैं।