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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - ३४* चारित्रसार ग्रन्थ में नित्यपूजा, चतुर्मुखपूजा, कल्पवृक्ष पूजा, अष्टाह्निकपूजा, इन्द्रध्वज पूजा, इन पूजाओं के लक्षण इस प्रकार हैं, अपने घर से लिये हुए गंध अक्षतादिकों से जिनालय में जिनेश्वर की पूजा करना, चैत्यालय निर्मित करके जिनपूजन के लिए ग्राम, खेत आदि को अर्पण करना, घर में मुनियों की पूजा करके दान देना यह नित्यमह पूजा का लक्षण है। मुकुटबद्ध सामन्तादिकों से जो जिनपूजा की जाती है. उसे सर्वतोभद्र पूजा, चतुर्मुखपूजा, महामहपूजा कहते हैं। सर्व प्राणिवृन्द का कल्याण करने वाली होने से उसे सर्वतोभद्र पूजा कहते हैं, चतुर्मुख मण्डप में जो जिनपूजा की जाती है, उसे चतुर्मुख पूजा कहते हैं, आष्टाह्निक पूजा की अपेक्षा से यह बड़ी होने से इसे महामह पूजा कहते हैं, इन रूपों से जिनकी पूजा की जाती है उसे पूजार्ह कहते स्नातकः = कर्म मल कलंकरहितः द्रव्यकर्मनोकर्म रहितत्वात् पूतः प्रक्षालितः कः आत्मा यस्य स स्नातकः, उक्त च पुलाकः सर्वशास्त्रज्ञो बकुशो भव्यबोधकः । कुशीले स्तोकचारित्रे निर्ग्रथो ग्रन्थहारकः॥ स्नातक : केवलज्ञानी, शेषाः सर्वे तपोधनाः। = कर्ममल रहित जिनराज को स्नातक कहते हैं, अर्थात् द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, भावकर्म रागद्वेषादि तथा नोकर्म रहित हो जाने से पूत पवित्र प्रक्षालित हुई है आत्मा जिनकी ऐसे जिनराज को स्नातक कहते हैं। पुलाक मुनि सर्वशास्त्रों के ज्ञाता होते हैं। वकुश मुनि भव्यों को धर्म का स्वरूप समझाते हैं, कुशीलमुनि अल्प चारित्र के धारक होते हैं, तथा निर्ग्रन्थ मुनि सर्व परिग्रहों के त्यागी होते हैं, स्नातक मुनि केवलज्ञानी होते हैं, बाकी के मुनि तपोधनं होते हैं। अमलः = न विद्यते मलोवसादिर्यस्य सोऽमलः। यत्स्मृतिःवसाशुक्रमसृक् मज्जामूत्रं विट्कर्णविट्नखाः। श्लेष्माश्रुदूषिकास्वेदा द्वादशैते नृणां मलाः।। जिनदेव के देह में वसादिमल नहीं होने से वे अमल हैं, मल बारह प्रकार
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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