SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * जिनसहस्रनाम टीका - ३१ * वचन 'अर्हन्' शब्द है। जिसका अर्थ है पूजा के योग्य। अथवा 'अ' शब्द अरि (शत्रु) का वाचक है। 'र' कार शब्द रज् (ज्ञानावरण और दर्शनावरण) तथा 'रहस्य' (अन्तराय) का सूचक है। इस आत्मा का शत्रु मोहनीय कर्म है। अथवा 'अरे' शब्द का अर्थ चार घातिया कर्म हैं। इनका 'हन्तं' नाश करने वाला अरहंत कहलाता है। गौतम ऋषि ने भी चैत्य भक्ति में कहा हैमोहारिसर्वदोषादि-घातिकेभ्यः सदाहतरजोभ्यः । विरहित रहस्कृतेभ्य: पूजार्हेभ्यो नमोऽर्हद्भ्यः। मोहरूपी शत्रु से उत्पन्न सर्व दोषों के घातक, सदा ज्ञानावरण और दर्शनावरण रूप रज रहित तथा अन्तराय रूप रहस्य के नाश करने से पूजा को (सत्कार को) प्राप्त अरहंत प्रभु के लिए नमस्कार हो। चामुण्डराय ने चारित्रसार ग्रन्थ में इसी अर्थ की सूचक गाथा लिखी है अरिहनन रजोहनन, रहस्यहर पूजनाहमर्हन्तं । सिद्धान् सिद्धाष्टगुणान्, रत्नत्रयसाधकान् स्तुवे साधून् ।। अरि (मोहनीय कर्म) का घात करने वाले, रज (ज्ञानावरण, दर्शनावरण) के घातक, रहस्य (अन्तराय) का नाश करने वाले और पूजा के योग्य अरहंत प्रभु को, सम्यक्त्वादि अष्ट गुणों के धारक सिद्धों को और रत्नत्रय के आराधक आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु को मैं नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार चार घातिया कर्म का नाश कर पूजनीय हुए हैं उनको अर्हन् कहते हैं। अरजाः = ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो रज जिसके नहीं हैं वह अरज कहलाता है। विरजाः = नष्ट हो गये हैं ज्ञानावरणादि कर्म रज जिसके वह विरज कहलाता है। शुचिः = शुच् शौचे। भूवादौ परस्मैपदीशौ शोचति निर्मलीभवतीति शुचिः। शुच् धातु शौच (पवित्र) अर्थ में आता है। भू आदि गण में परस्मैपदी
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy