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________________ जिनसहस्रनाम टीका १७ इन्द्र, धरणेन्द्र, गणेन्द्र, नरेन्द्र आदिकों से वन्दनीय ऐसे उत्कृष्ट परम पद में जो विराजे हैं, अतः परमेष्ठी हैं। सनातनः = सना सदाभवः सनातनः = सदाभव जिनेश्वर का शुद्धात्मरूप त्रिकाल में भी अबाधित रहता है, अतः वे सनातन नाम से कहे जाते हैं। स्वयंज्योतिरजोऽजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिजः । मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वजः ॥ ८ ॥ स्वयंज्योतिः = स्वयं आत्मा ज्योतिः चक्षुर्यस्येति स्वयंज्योतिः, प्रकाशकत्वात् स्वयं सूर्य इत्यर्थः = स्वयं आत्मा ही ज्योति चक्षु, नेत्र जिनका है ऐसे आप हैं, अर्थात् केवलज्ञान युक्त आपकी आत्मा ज्योतिसूर्य रूप है। अजः = न जायते नोत्पद्यते संसारे इत्यजः = जो संसार में पुन: उत्पन्न नहीं होता ऐसा जिनपति अज है। अजन्मा = न जन्म विद्यते गर्भवासो यस्येति स अजन्मा जिसका गर्भ में आना नहीं रहा है, वह अजन्मा है। ब्रह्मयोनिः = = आत्मनि मोक्षे ज्ञाने वृत्ते ताते च भरतराजस्य । ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरो विद्यते ब्रह्मा । आत्मा, मोक्ष, ज्ञान, वृत्तचारित्र तथा भरतराज के पिता इतने अर्थों में ब्रह्मशब्द का प्रयोग होता है, इससे भिन्न दूसरा कोई ब्रह्मा नहीं है और प्रभु आप ब्रह्म के अर्थात् तप, ज्ञान, आत्मा, मोक्ष तथा चारित्र के उत्पत्ति स्थान हैं, इसलिए ब्रह्मयोनि हैं। अयोनिजः = अयोनेर्जातः अयोनिजः अयोनौ जातो वा अयोनिजः पंचमगतौ स्त्रीणामभावत्वादिति = पंचमगति में स्त्रियों का अभाव है, अत: उस गति को अयोनि-मोक्ष कहते हैं, मुक्तावस्था प्राप्त करने के लिए भगवान का जन्म हुआ है, अतः अब वे अयोनिज हो गये । मोहारि : : = मोहो मोहनीयं कर्म्म तस्यारिः शत्रुः स मोहारि : - मोहनीय कर्म का नाश प्रभु ने किया है, अतः वे मोह के शत्रु हैं। विजयी विशिष्टो जय विजय: भुक्तिपुर्यां गमनं विजयोऽस्यास्तीति विजयी, विजयते इत्येवंशीलो =
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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