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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २५२ * णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो। ओजमणो वि य कमसो आहारो छविहो यो । नोकम्मं तित्थयरे कम्मं णरये माणुसे अमरे। कवलाहारो परपसु उज्जो परके न गेलेउ ।। पुनः तृप्ताय तृप्तौ धातुः प्रयोगात् तृप्यते स्म तृप्तः तस्मै तृप्ताय इतर प्राणितृप्तिभ्यो विलक्षणः कवलाहाररहितः इत्यर्थः । पुनः नमः कस्मै परमभाजुषे परमा चासौ भा दीप्ति: परमभा दिवाकरसहसभासुरां तां जुषते तन्मयो भवतीति परमभाजुट् तस्मै परमभाजुषे । पुनः नमः व्यतीताशेषदोषाय व्यतीता मुक्ता अशेषाः समग्रदोषाः क्षुत्पिपासादया पेन सध्यसौताशेषदोप: स्मै व्यतीताशेषोपाय । पुनः भवाब्धे: पारमीयुषे भवाब्धेः संसार-समुद्रस्य पार पर्यंत ईयुषे प्राप्ताय अस्माकं भाक्तिकानां नमोऽस्तु ॥३१॥ ___ अर्थ : आगम में नोकर्म आहार, कर्म आहार, कवलाहार, लेप आहार, ओज आहार और मानसिक आहार के भेद से आहार छह प्रकार का है। नो कर्म आहार तीर्थंकरों (केवलियों) के होता है, कर्म आहार नारकियों के होता है, देवों के मानसिक आहार होता है, मनुष्यों और पशुओं के कवल आहार होता है, और अण्डे में स्थित प्राणियों के ओज आहार होता है। वृक्ष आदि के लेप्य आहार होता है। जिन पौद्गलिक वर्गणाओं से औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन शरीर तथा आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन ये छह पर्याप्ति बनती हैं, उनके नोकर्मवर्गणाओं को ग्रहण करने को नोकर्म आहार कहते हैं। जीव के परिणामों के द्वारा प्रतिक्षण ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के योग्य पुद्गल वर्गणाएँ जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होती हैं, वह कर्म आहार है। सर्व जगत्प्रसिद्ध मुख द्वारा ग्रहण किया जाने वाला, खाने-पीने वा चाटने की वस्तुओं का जो मुख में रखकर खाने का प्रयोग किया जाता है वह कवलाहार है। गर्भस्थ बालक के द्वारा ग्रहण किया गया माता का रजांश भी कवलाहार
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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