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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २१८ * ध्यानत्रुघणनिर्भिन्न-धनधातिमहातरुः । अनंतभवसंतानजयादासीरनंतजित् ॥४॥ टीका - हे देव, भगवन् ! कथंभूतः ध्यान द्रुघण निर्भिन्न घनघाति महातरु: ध्यानं शुक्लध्यानं स एव द्रुधणः कुठारस्तेन निर्भिन्नः उन्मूलितो घनो निविडो घातिमहातरुः ज्ञानावरणादिकर्मचतुष्टय महावृक्षो येन सः ध्यानद्रुधणनिर्भिन्न घनघातिमहातरु: । हे देव ! अनंतजित् अनंत-संसार जितवान् स अंनतजित् । त्वमासीस्त्वमभूः। कस्मात् अनंतभवसंतानजयात् । अनंतश्चासौ भवोऽनंतभवः तस्य संतानजयात् सन्ततिजयात् संततिच्छेदात् ।।४।। अर्थ : ध्यान (शुक्ल ध्यान) रूपी तीक्ष्ण कुठार के द्वारा विदार दिये हैं (नष्ट कर दिये हैं, मूलसे उखाड़ दिये हैं) निविड़ (घोर) ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय रूप चार घातिया कर्मरूपी महावृक्ष को जिसने, वह कहलाता है ध्यानद्रुघणनिर्भिन्नघनघातिमहातरु। ध्यान के द्वारा धातिया कर्मरूपी वृक्ष के नाश करने वाले भगवान आपने अनन्त संसार की संतति का नाश कर दिया है अतः आप 'अनन्तजित्' कहलाते हैं।॥४॥ त्रैलोक्यनिर्जयावाप्तदुर्दर्पमतिदुर्जयम्। मृत्युराजं विजित्यासीज्जिन मृत्युंजयो भवान् ।।५।। टीका - हे जिन ! कारातीन् जयतीति जिनः सम्बोधने हे जिन भगवन् श्रीनाभिनंदन | भवान् मृत्युंजयः आसीत् अभूत् किं कृत्वा विजित्य पराभूय के मृत्युराज यमं कथंभूतं त्रैलोक्यनिर्जयावाप्तदुर्दम्र त्रैलोक्यस्य त्रिभुवनस्य निर्जयः पराजयः तस्मात् अवाप्तः प्राप्तो दुर्दो दुष्टाहकारो येन स त्रैलोक्यनिर्जया-वाप्त दुर्दपस्तं त्रैलोक्यनिर्जयावाप्तदुर्दर्प। पुनः कथंभूतं अतिदुर्जयं, अत्यंत जेतुमशक्यमित्यर्थः ॥५॥ अर्थ : कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाला जिन कहलाता है और सम्बोधन में हे जिन ! हे नाभिनन्दन भगवन् ! आपने तीन लोक को जीत लेने के कारण महा अभिमान को प्राप्त तथा दुर्जय मृत्युराज को भी पराजित कर दिया है अत: आप मृत्युंजय कहलाते हैं।॥५॥
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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