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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - २०३* विनष्टो विघ्नांतरायो यस्येति निर्विघ्न:- हन् धातु हिंसा और गति अर्थ में होती है। वि उपसर्ग है स्था, स्ना, पा, व्याधि, हान् धातुओं में 'क' प्रत्यय होता है, हन् का घन आदेश है और न की उपधा का लोप होता है अत: नि निकलगई नष्ट हो गये, विघ्न (अन्तराय) जिनके वह निर्विघ्न कहलाता है। निश्चल:- चल कंपने चलतीति चलः निर्गतो विनष्टो चल: कंपो यस्येति यस्माद्वा स निश्चलः सदास्थिर इत्यर्थः = चल, कंपपना जिनसे नष्ट हुआ है ऐसे प्रभु निश्चल हैं। जिनके आत्मप्रदेशों में कम्पन नहीं है वे निश्चल हैं। लोकवत्सलः= वळ्यक्तायां वाचि। मातरमभिक्षा वदतीति वत्सलः । ‘वतृ वदिह निमनिकस्य सिकषिभ्यः सः वत्सोस्यास्तीति वत्सलः सिध्मादित्वाल्ल: लोकानां लोकेषु वा वत्सलः स्नेहल; लोकवत्सलः = वद् धातु बोलने अर्थ में है, माता के साथ प्रेम से बोलता है उसको वत्सल कहते हैं अर्थात् जैसे गाय को अपना बच्चा प्यारा होता है उसी प्रकार सबको अपना बच्चा बहुत प्यारा होता है अत: वत्स कहलाता है। लोक को वा लोक में जो वत्सल हो, स्नेहयुक्त हो उसको लोकवत्सल कहते हैं, अर्थात् सारे प्राणियों पर वात्सल्य भाव धारण करने से आप लोकवत्सल हैं। लोकोत्तरो लोकपतिर्लोकचक्षुरपारधीः । धीरधीर्बुद्धसन्मार्ग: शुद्धः सूनृतपूतवाक्॥९॥ प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिर्नियमितेन्द्रियः। भदन्तो भद्रकृद्भद्रः कल्पवृक्षो वरप्रदः ।।१०।। अर्थ : लोकोत्तर, लोकपति, लोकचक्षु, अपारधी, धीरधी, बुद्धसन्मार्ग, शुद्ध, सूनृतपूतवाक्, प्रज्ञापारमित, प्राज़, यति, नियमितेन्द्रिय, भदन्त, भद्रकृत्, भद्र, कल्पवृक्ष, वरप्रद, ये सत्तरह नाम प्रभु के इस प्रकार सार्थक हैं। टीका : लोकोत्तरः- लोकेषु त्रिभुवनस्थितप्राणिवर्गेषु उत्कृष्टः स लोकोत्तरः = तीनों लोकों में स्थित प्राणिसमूह में प्रभु सबसे उत्कृष्ट होने से लोकोत्तर हैं। समस्त जगत् में उत्कृष्ट होने से लोकोत्तर हैं। लोकपति:- लोकानां त्रिभुवनजनानां पतिः स्वामी लोकपति:- त्रिभुवन
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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