SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * आशीर्वचन - जीव को संसार रूपी मरुस्थल में भ्रमण करते-करते अनन्त काल व्यतीत हो गया। उसमें अनन्तकाल तो निगोद में एकेन्द्रिय रूप में व्यतीत किया, जहाँ एक श्वास में अठारह बार जन्मा और मरा। ४८ मिनिट में कुछ सैकन्ड कम काल में ६६,३३६ बार जन्मा और उतनी ही बार मरा । वहाँ से निकलकर पृथ्वी. जल, अग्नि, वायु और वनस्पति कायिक स्थावर हुआ । यदि किसी पुण्य के उदय से त्रस पर्याय प्राप्त की तो दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय तक कुछ भी विचारपूर्वक क्रिया करने का सामर्थ्य नहीं मिला। कर्मफल चेतना को भोगता रहा। सैनी पंचेन्द्रिय पर्याय भी अल्प आयु, रोग, शोक, चिन्ता आदि में व्यतीत हो गये। किसी महान् पुण्य से मानव जैसी उत्तम पर्याय, श्रावक कुल, जिनवाणी का संयोग, जिनधर्म की प्राप्ति हुई है। उसका सदुपयोग करने के लिए जिनवाणी का श्रवण, चिन्तन, मनन करना चाहिए। जिनसेन आचार्य ने भव्य जीवों का उपकार करने के लिए तथा जिसका प्रतिदिन चिन्तन किया जा सके ऐसी जिनसहस्र नामावली की रचना की। एक हजार नामों के द्वारा भगवान की स्तुति की। स्तुति में केवल नामावली ही नहीं है अपितु स्याद्वाद वा अनेकान्त के द्वारा मत-मतान्तरों का खण्डन भी किया एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। उन शब्दार्थों के द्वारा स्वकीय मतानुसार अर्थ करके आपने अपने मतकी सिद्धि की है। जैसे 'अर्द्धनारीश्वर' जो आधे अंग में स्त्री को रखता है, जो स्त्री को अंग में लिपटाये रखता है, वह विषयभोगों में अन्ध हुआ पुरुष महान् कैसे हो सकता है। परन्तु जिनसेनाचार्य ने उसका अर्थ किया है कि आत्मा के शत्रु ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म हैं। इनमें से अर्ध (आधे) ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार शत्रु (अरि)ओं का नाश करने से आधे नहीं हैं शत्रु जिसके, उसको 'अर्ध नारीश्वर' कहते हैं। "त्रिपुरारि'- तीन पुरों को जलाने वाले, नष्ट करने वाले त्रिपुरारि आत्मा
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy