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________________ * जिनसहननाम टीका - १८९ भर्माभः= भर्मणः स्वर्णस्य आभा छविर्यस्य स भाभ:= प्रभु की आभा स्वर्ण की कांति सदृश कांति वाली थी। सुप्रभः= शोभना चन्द्रार्ककोटिसमा नेत्राणां प्रिया च प्रभा द्युतिमंडलं यस्य स सुप्रभ:- करोड़ों चन्द्र-सूर्य की शोभा सदृश होकर भी नेत्रों को आह्लादित करने वाली प्रियप्रभा अर्थात् भामण्डल जिनका है ऐसे प्रभु अपने सुप्रभ नाम को अन्वर्थ करते हैं। कनलाभ:-- कनकर दोन प्रथा कोतिर्गस्य स कनकराभ:- प्रभु स्वर्ण के समान कांति धारण करने वाले हैं। सुवर्णवर्ण:= सुवर्णस्य वर्ण आकारो यस्य स सुवर्णवर्ण:= सुवर्णवर्ण । रुक्माभ:- सुवर्ण, रुक्म ये दोनों शब्द सुवर्ण वाचक हैं अर्थात् प्रभु की देहकान्ति सुवर्ण के समान है, ऐसा ही अर्थ सुवर्णवर्ण और रुक्माभ इन दोनों शब्दों का समझना चाहिए। सूर्यकोटिसमप्रभः= सूर्यकोटिसमा सदृशी प्रभा यस्य स सूर्यकोटिसमप्रभः, सूर्य की प्रभा याने कांति समान जिनकी कांति है। तपनीयनिभः= तपनीयस्य निभः सदृश: तपनीयनिभः= तपनीय सुवर्ण, निभः सदृश सोने के समान कान्तिमान् प्रभु हैं। ___ तुंगः- तुजति दीर्घमादत्ते तुङ्ग उन्नतः विशिष्टफलदायक इत्यर्थः- उच्च, उन्नत, विचारयुक्त अर्थात् प्रभु भक्तों को विशिष्ट फल देने वाले हैं। ___ बालार्काभः= बालश्चासावर्क: बालार्कः बाल इव अर्कः बालार्कस्य प्रभा कांतिर्यस्येति बालाभिः- प्रभु बालसूर्य के समान कांति वाले हैं। अनलप्रभ:= 'अन च' अनिति प्राणितीति अनलः, अनलस्य ज्वलनस्य प्रभा यस्येति अनलप्रभः कर्मशत्रूणामुच्चाटकत्वादित्यर्थः = अनल याने अग्नि की प्रभा, कान्ति के समान कांतिवाले प्रभु हैं। अथवा कर्म शत्रुरूपी ईंधन को जलाने वाले होने से अग्नि के समान हैं। सन्ध्याभ्रबभ्रुः विप्राः सम्यक् ध्यायति इति सन्ध्या, आप्नोति सर्वादिशः इति अभ्रं, बिभर्ति शोभा बभ्रुः संध्यायाः अभं मेघः संध्याभ्रवत् वभ्रः कपिलपिंगलः
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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