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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १७९ * लोकज्ञः= अनन्तानन्ताकाशबहुमध्य-प्रदेशे घनोदधिधनवाततनुवाताभिधानवातत्रयवेष्टितोऽनादिनिधनोऽकृत्रिम-निश्चलासंख्यातप्रदेशो लोकोऽस्ति लोकं जानातीति लोकज्ञः- यह लोक • जगत् अनन्तानन्ता-काश के बहुमध्य भाग में घनोदधि, घनवात तथा तनुवात, इन तीन वातवलयों से वेष्टित है और अनादि अविनाशी है, अकृत्रिम, निश्चल तथा असंख्यात प्रदेशवाला है। इस प्रकार लोक का स्वरूप प्रभु जानते हैं अत: वे लोकज्ञ हैं। सर्वगः= सर्वं गच्छति जानातीति सर्वगः- सर्व वस्तुओं को भगवान जानते हैं अतः वे सर्वग हैं, सर्वज्ञ हैं। जगदग्रजः= जगतां अग्रं जगदग्रं, त्रैलोक्यशिखरं, जगदग्रे जातो जगदग्रजःजगत् के अग्रभाग - लोकशिखर - मोक्षस्थान वहाँ प्रभु उत्पन्न हुए, विराजमान हुए, अतः जगदग्रज हैं। चराचरगुरुः= चरा मनुष्यादयः अचरा अमनुष्यादयः तेषां गुरुः शास्ता स्वरूप - कथक:- चर-त्रसजीव, द्वीन्द्रिय जीव से पंचेन्द्रिय तक चार गतियों के मनुष्य, देव, नारकी और पशु तथा अचर-स्थावरजीव पृथिव्यादिक, इनके आदि भगवान् गुरु हैं, इनको हितोपदेश देते हैं तथा इनका स्वरूप कहते हैं अतः चराचरगुरु हैं। गोप्यः= गुप्यते इति गोप्यः तथानेकार्थे - 'गोप्यो दासेरगोप्तव्यौ' = प्रभु का स्वरूप गुप्त है, गोप्य है। हम अज्ञ लोक उसे नहीं जानते हैं। गूढात्मा गृह्यते स्म गूढः गोप्य: संकलित; आत्मा यस्य स गूढात्मा = भगवान का आत्मस्वरूप गूढ़ है, अतीन्द्रिय है। गूढगोचरः= गूढानि गोप्यानि संवृत्तानि गोचारणि इन्द्रियाणि यस्य स गूढगोचरः गूढेन्द्रिय इत्यर्थः= प्रभु की स्पर्शनादि इन्द्रियाँ संवृत हुईं क्योंकि, वे त्रैलोक्य के अनन्त पदार्थों को उनके गुणपर्यायों सहित जानते हैं। अत: उनकी इन्द्रियों का व्यापार संवृत हुआ है। केवलज्ञान के द्वारा वे अनन्तपदार्थों को जानते हैं। सद्योजातः= सद्यस्तत्कालं स्वर्गात्प्रच्युत्य मातुर्गर्भे उत्पन्नत्वात् सद्योजात: उक्तं च -
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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